________________
स्थाका टोका एवं हिन्दीविचम ]
[ १२५
अन्न वदन्ति-अन्तरशुभयोगनिवृत्तिरूपं वीर्यमेव पारित्रम् , बहिष्प्रवृत्तिस्तु तदभिव्यजिका । मूलगुणविषयसद्वयापाररूपस्थैर्यसमये च तत्प्रतिपक्षनिवृत्तिरूपं स्थैयमव्याहतमेव । तच्चोत्कृष्यमाणं शैलेश्यां परमनिवृत्तिरूपं भवत् स्थैर्यपरिणामेन मुक्तावनुवर्तते । न च बाह्यालम्बनगुतिरूपतया तस्य कथं केवलात्मस्वभावसाम्राज्यरूपायां मुक्तावनुवृत्तिः इति वाच्यम् । अर्वाग्दशायां समितिगुप्त्युभयरूपस्यापि योगनिरोधगुप्त्येकरूपतयोत्कर्षवच्छैलेशीचरमसमये स्थिरात्ममात्रपरिणामरूपतयोत्कर्षसंभवात् । अत एष स्वभावसमवस्थानं सिद्धानां चारित्रमित्यपि निरवद्यम् । न च वीर्याभावात् सिद्धानां चारित्राभावा, तदसिद्धः, अनन्तज्ञान-दर्शन-वीर्यचारित्र-सुखस्वभावत्वात् तेषाम् । “'सिद्धा णं अवीरिआ" इति सूत्रं तु सकरणवीर्याभावाभिप्रायादेव व्याख्येयम् । स्वरूपसत्करणस्याप्यभावे न तत्र शैलेशीवद् भजना, मूलसूत्रभङ्ग्यभाशत् , विचित्रत्वाच सूत्रगतेः ।
न च क्षायिकभावस्य नाशो युक्तः, क्षायिकसामान्य एवं नाशाऽप्रतियोगिस्वनियमात् । अत एव नास्य शरीरनाशकनाश्यत्वम् , शारीरचलचयोपचयभावेऽप्यान्तरवीयरूपचारित्रचयो.
तो इसका उत्तर यह है कि जैसे प्राथमिक अवस्था में चारित्र समिति और गुप्ति इन दोनों रूपों से होने पर भी उत्तरकाल में एकमात्र योगनिरोधात्मक पति के रूप में उसका उत्कर्ष होता है उसी प्रकार शैलेशी के अन्तिम समय में स्थिर आत्मा के परिणामरूप में भी उसका उत्कर्ष हो सकता है। इसीलिये यह माम्यता भी निर्दोष सिद्ध होती है कि स्वभाव में सम्यक् प्रवस्थान ही सिद्ध आत्मामों का चारित्र है। सिख आत्माओं में वीर्य के अभाव से चारित्रामाव को कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि सिद्ध आस्मानों का स्वभाव अनन्तलान, दर्शन, वीर्य, चारित्र और सुखस्वरूप होता है, प्रतः बनमें बोर्याभाव सिद्ध है। "सिद्ध आत्मा अबीर्य होते हैं। इस बात के प्रतिपायक पूर्वोक्त व्यास्याप्रज्ञप्ति सूत्र का तात्पर्य वीर्यसामान्य के अभाव में नहीं है किन्तु करणयुक्तवीर्य के अभाव में है। अतः सिद्धप्रात्माओं में घीर्य का अस्तित्व स्वीकार करने में उक्त सूत्र का विरोष सिद्ध नहीं हो सकता । करण का स्वरूप से भी समाव मानने पर शैलेशी के समान उसमें माना यानी विकल्प का आपावन ठीक नहीं है क्योंकि मूल सूत्र की ऐसी भङ्गीपरिपाटी नहीं है, तथा सूत्र को गति विचित्र होती है ।
[क्षायिकभाव की अविनश्वरता ] क्षायिकभाव का नाश मुक्तिसंगत भी नहीं है। क्योंकि क्षायिकभाव मात्र में अनश्वरता का नियम है। इसीलिये पारित्र शरीर के नाशक से भी नाश्य नहीं होता । कारण शारीरिक बलका उत्कर्ष और अपकर्ष होने पर मो आन्तरवीर्यरूपचारित्र का उत्कर्ष अथवा अपकर्ष नहीं होता, इसलिए चारित्र देहनाश से नियतनाश का प्रतियोगी सिद्ध नहीं होता तथा चारित्र के जिस उत्कर्ष से फलविशेष
१. सिद्धा अवीर्याः।