________________
१२४ ]
[शास्त्रवास्ति० श्लो० २६
है क्योंकि-'लक्ष्यते अनुमाप्यते अनेनेति लक्षणम्-जिससे जो वस्तु लक्षित-अनुमित होती है उसे लक्षण कहा जाता है-इस व्युत्पत्ति के अनुसार लक्षण शब्द बहाँ लिङ्ग का बोधक है और चारित्र जीव का जब लिङ्ग है तब जीव के साथ उसके सतत अनुवर्तन का प्रश्न नहीं ऊठता क्योंकि-'लिङ्ग न होने पर लिङ्गो का भी न होना' इस प्रकार को लिङ्गी में लिङ्ग को व्यतिरेकस्याप्ति सिद्ध नहीं है ।
लक्षण की लिङ्गरूप में व्याख्या कर देने पर कभी जीव सर्वथा निलक्षण भी हो जायगा', यह शङ्का भी नहीं की जा सकती क्योंकि बाह्यलक्षण का अभाव होने पर भी उपयोगरूप आन्तरलक्षम जोब के साथ सदा अनुवर्तमान रहता है अतः उसके निर्लक्षण की आपत्ति नहीं हो सकती ।
[ चारित्रात्मा की साल्पसंख्या से चरित्राभाव की मुक्ति में सिद्धि ] विपक्षी को इस बात की भी व्यग्रता नहीं होनी चाहि कि प्रारमा को सामायिक तथा सामायिक का अर्थ बतानेवाले सूत्र के अनुसार चारित्रशक्ति के आत्मरूप होने से उस रूप से मुक्ति में मी उसके अनुवतंन की आपत्ति होगी क्योंकि आत्मा के आठ भेव बताकर उसके अल्पस्व, बहत्व मादि का प्रतिपादन जिस प्रकरण में किया गया है उसमें चारित्रात्मा को सर्वअल्प कहा गया है, उसको सल्पिता तभी उपपन्न हो सकती है जब चारित्र का मुक्ति में अनुवर्तन न माना जाय । आठ प्रकार के बास्माओं को परस्पर विलक्षणता 'प्रप्ति' अन्य में इसप्रकार बताई गई है कि चारित्रात्मा सर्वस्तोक होते हैं, ज्ञानास्मा उनसे अनन्तगुण होते हैं, कषायारमा उनसे मी अनन्तगुण होते हैं। योगारमा उन से कुछ विशेषाधिक होते हैं, उपयोगारमा, प्रव्यात्मा और दर्शनात्मा ये तीनों परस्पर में समाम तथा योगात्मा से विशेषाधिक होते हैं।
इस बात को विद्यावृद्धों ने विवेकपूर्वक इस प्रकार अधिकस्पष्टता से प्रतिपादित किया है कि-'चारित्रपरों की संख्या सहस्रकोटिपृथक्त्व (२००० कोड से १००० कोड परिमित) होती है। अत: चरित्रात्मा सब से हतोक-अपकृष्ट होते हैं । उनसे ज्ञातात्मा सियों की अपेक्षा मन. सगुण सिद्ध होते हैं। रागवानों की वृद्धि से कषायात्मा अनन्तगुण होते हैं अयोगिजित योगारमा कुछ अधिक होते हैं । शैलेशी अवस्था में पहचे आत्माओं में भी लग्धिवीर्य होता है उसके कारण वीर्यास्मा उनसे समषिक होते हैं। उपयोग द्रव्य और दर्शन सब जीवों में होते हैं अतः वे सर्वाधिक होते हैं।' उक्त कारण से सिद्धों में चारित्र फंसे स्वीकार्य हो सकता है ? !(एकदेशीमत का प्रतिपादन सम्पूणे]
[ एकदेशीमत समक्ष दूसरे पक्ष का निवेदन ] 'मुक्ति में चारित्र नहीं है। ऐसे एकवेशीमत के सम्बन्ध में विद्वानों का यह कहना है कि वीर्य ही चारित्र है जो अन्तरंग अशुभयोग की नियुत्तिरूप है, बाह्यप्रवृत्ति से मात्र उसकी प्रभिव्यक्ति होती है । अहिंसादि मूलगुण के विषय में प्रशस्त व्यापाररूप स्थैर्य के समय भी हिंसादिविरोधी हिंसावि से नियत्तिरूप स्थैर्य होने में कोई ध्याघात नहीं होता। वही स्थैर्य उत्कर्ष को प्राप्त करता हुमा शैलेशी अवस्था में परमनिवसि रूप हो जाता है और स्थैर्य परिणाम के रूप में मोक्ष दशा में मो अनुवर्तमान होता है । यदि यह प्रश्न किया जाय कि- उक्त स्थैर्य बाह्य विषयों की गुप्तिरूप है और मुक्ति में केवल प्रारमस्वभाव का हो साम्राज्य होता है । प्रतः मुक्ति में उक्तस्थर्य का अनुवर्तन कैसे हो सकता है ?'