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स्या क० टीका एवं हिन्दीविधेधन ]
अणंतगुणाओ, कसा(या)याओ अणंतगुणाओ, जोगायाओ विसेसाहिआओ, वीरिआ(या)ओ विसेसाहिआओ, उबओग-दचिय-दसणाया तिणि वि तुला विसेसाहिआओ"। उक्तश्चायमेवार्थो विविच्य वृद्धः-[ ]
"'कोडीसहस्सपुहुतं जईणं तो थोविआओ चरणाया ।
नाणाया अणंतगुणा पडुच्च सिद्धे अ सिद्धाउ ॥ १॥ हुँति कसायायाओऽणंतगुणा जेण ते सरागाणं । जोगाया भणिआओ अजोगियज्जाण तो अहिआ ॥२॥ जं सेलेसिगयाण वि लद्धि-चीरिअं तो समहिआओ।
उवओग-दविअ-दसण सम्वजिआणं तओ अहिआ॥३॥" इति । तस्मात् सिद्धानां चारित्रं कथं सुश्रद्धानम् ? इति चेत् ?
[सिद्धात्मा में चारित्रकल्पना आगमबाह्य ] यह भी ज्ञातव्य है कि सिद्ध प्रात्माओं में चारित्र के अस्तित्व की कल्पना पूर्व ऋषियों को मान्यता के विरुद्ध है. क्योंकि मरण के बाद देवलोक में तथा मुक्ति में चारित्रपरिणाम को उत्पत्ति नहीं होतो, इस अभिप्राय से ही भगवान ने चारित्र को अपारभविक-परभव से असम्बद्ध बताया है। बात यह है कि-'एकबार गौतम ने भगवान से पूछा कि भगवान् धारित्र ऐहभविक है, अथवा परभविक है अथवा उभयधिक है ? भगवान ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा,-गौतम [ चारित्र केवल इहभधिक है, परभविक नहीं है, उभयमविक भी नहीं है।'
इहमधिक का अर्थ है जिसकी उत्पत्ति और स्थिति केवल इस भव में ही हो, परमविक का अर्थ है जिसकी उत्पत्ति इहमव में हो और स्थिति परमव में भी हो, और उभयविक का अर्थ है इस भव प्रौर परभव उभय में जिसकी उत्पत्ति-स्थिति हो ।
यदि यह कहा जाय कि-'णाणं च सणं चेय.........."इस गाथा के अनुसार चारित्र जीव का लक्षण है अतः जीव के साथ मोक्ष में भी उसका अनुवर्तन अनिवार्य है तो यह ठीक नहीं है-क्योंकि लक्ष्य के साथ लक्षण का सतत सम्बन्ध मानने पर मोक्ष में तप आदि के भी अनुवर्तन का प्रसंग होगा क्योंकि तप आदि को भी गाणं च..... इस गाथा में जीव का लक्षण माना गया है। दूसरी बात यह है कि चारित्र को जो जीव का लक्षण कहा गया है उसका तात्पर्य चारित्र को जीव का लिङ्ग बताने में
१. कोटिसहपृथक्त्वं यतीनां ततः स्तोकाश्चरणात्मानः । ज्ञानात्मानोऽनन्तगुणाः प्रतीत्य सिद्धांश्च सिद्धास्तु ।।१॥ भवन्ति कषायात्मानोऽनन्तगुणा येन ते सांगाणाम् । योगात्मानो भणिता अयोगिवर्जानां ततोऽधिकाः ।। २ ।। यत् शलेणींगतानामपि लब्धिवीर्य ततः समधिकाः । उपयोग-द्रव्य-दर्शनानि सर्वजीवानां ततोऽधिका।।३।।