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________________ १२२. [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २६ अपि च, अनार्ष सिद्धानां चारित्रकल्पनम् , "इहभविए भंते ! चरित्ते, परभविए चरित्ते, तदुभयमविए चरित्ते १ । गोयमा ! इहभविए चरित्ते, णो परभविए चरित्ते, णो तदुभयभविए चरित्त" इति प्रश्न-निर्वचनप्रबन्धेन 'चारित्रपरिणाममादायैव प्रेत्य देवलोकेषु मुक्ती वा नोत्पाद' इत्यभिप्रायेण भगवता चारित्रस्थाऽपारभक्कियोदेशार : जना मारित्रस्य जीवलक्षणत्याभिधानाद् ( न १) मुक्तावपि तदनुवृत्तिः शङ्कनीया, तपःप्रभृतेरप्यनुधृत्तिप्रसङ्गात् 'लक्ष्यतेऽनुमाप्यतेऽनेनेति लक्षणं लिङ्गम्' इत्यर्थेऽविरोधाच्च, लिङ्गाभावे लिङ्ग्यभावनियमाभावाद । न च पहिलेक्षणाभावेऽप्यान्तरलक्षणसवाद् नेलेमण्यमपि तस्येत्थमापद्यते, इति विभावनीयम् । न च "आया सामाइए आया सामाइअस्स अत्थे" इति सूत्रादात्मरूपतया चारित्रशक्तिमुक्तावप्यनुवतिष्यत इति व्यग्रभावो विधेयः, अष्टस्त्रयात्मसु चारित्रात्मनोऽन्ए-बहुत्वाधिकारे सर्वेस्तोकत्वाभिधानात् । तथा च प्रज्ञप्ति:-सव्वत्थोवाओ चरित्तायाओ, नाणायाओ सिद्ध में धारित्र और अधिरतिपरिणाम दोनों में से एक भी नहीं होता इसी लिये सिद्धो नो चारित्री नो प्रचारित्री-सिद्ध चारित्रयुक्त भी नहीं होता और अचारित्रयुक्त भी नहीं होता'- इस प्रागम की संगती होती है । क्योंकि चारित्र के अभाव से 'नो चारित्री' और अविरति परिणाम के प्रभाव से 'नो अबारित्री' इन दोनों कथनों की उपपत्ति हो सकती है । 'नो अचारित्रो' इस उक्ति में चारित्री शम्ब के पूर्व 'अ' के रूप में जो न पद लगा है उसका अर्थ है 'विरोधी' अत: 'नो प्रचारित्रो' का अर्थ है चारित्रविरोषी से शून्य. सिद्धि चारित्र के विरोधी अविरतिपरिणाम से शून्य होती है। प्रस्तुत प्रकरण में 'न' पब का विरोधी अर्थ होने से ही भव्यत्वाभाव और भव्यत्व के विरोधी अभय्यत्व का अभाव, इन दोनों अभावों के तात्पर्य से शास्त्र में तत्तत स्थान में सिद्ध को 'नो भव्य' तथा 'नो अभध्य' दोनों कहा गया गया है। यदि चारित्रअवस्था के सद्भाध से ही सिद्ध को 'नो चारित्री' और 'नो अचारित्री' कहा जायगा और नो चारिश्री' की उपपत्ति विकारी चारित्र के वंस से तथा नो अचारित्रों' की चारित्रप्रागभाव के निषेध से की जायगी तो केवली में ज्ञानावस्था के सदभाव से उक्तरीति से सिद्ध को यदि 'नो ज्ञानी' 'नो अज्ञानो' कहा जाय तो उसमें भी कोई विरोध होने की आपत्ति न होगी, क्योंकि मतिज्ञानादि के अभाव को लेकर 'नो ज्ञानी' और अज्ञान के अभाव को लेकर 'नो अज्ञानी' दोनों की उपपत्ति हो सकती थी। १. इहभविकं भगवन् ! चारित्रम् , परभविक चारित्रम् तदुभयभविक चारित्रम् ? । गौतम ! इह भविक चारित्रम् , नो परमविर्क चारित्रम् , नो सदुभयभविक चारित्रम् । २ आत्मा सामायिकम् , आस्मा सामायिकस्यार्थ । ३. सर्वस्तोकाश्चारित्रात्मानः, ज्ञानात्मानोऽनन्तगुणाः, कषायात्मानोऽनन्त गुणाः योगात्मानो विशेषाधिका:, वोर्यात्मानो विशेषाधिकाः, उपयोग द्रव्य-दर्शनात्मानस्त्रयोऽपि तुल्या विशेषाधिकाः ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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