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स्या०० टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
[ १२१
अथाऽचारित्रस्य सतः सिद्धस्य चारित्रावरणकर्मणः पुनर्बन्धप्रसङ्ग इति चेत् ? न, अविरतिप्रत्ययवाद सस्य, योगादिसामग्रीसव्यपेपरवाच । न च चारित्राभाव एवाविरतिरिति सिद्धानामविरतत्वव्यपदेशप्रसङ्ग इति वाच्यम् ; निर्जराजनकविरतिपरिणामवदविरतिपरिणामस्य विचित्रकर्मबन्धजनकस्य स्वतन्त्रत्वात् , तस्य विरतिप्रागभावास्कन्दितत्वेऽपि तथाविधविरतिध्वंसानास्कन्दितत्वात् । अत एव 'सिद्धो नोचरित्री नोअचरित्री' इत्यागमः संगच्छते, चारित्रामावाद् 'नोचारित्री' इति, अविरत्यभावाच 'नोअचारित्री' इत्युक्तेरुपपत्तेः, 'अचारित्री' इत्पत्र ननो विरुद्धार्थत्वात् । अत एव भव्यत्वाभाव-मव्यत्वविरुद्धामन्यत्वाभावाभ्यां 'नोमव्यत्वनोअभव्यत्वमपि तस्य तत्र तत्रोक्तम् । यदि च चारित्रावस्थाभावादेव नोचारित्रत्व-नोअचारित्रत्वं सिद्धस्योच्यते, तदा ज्ञानावस्थाभावाद् नोज्ञानिव-नोअज्ञानित्वमपि तस्य प्रतिपाद्यमानं न विरुध्येत ! मोक्ष मो उत्पद्यमान होने से उत्पन्न हो ही जाता है अत: चारित्र को विगति के समय में मोक्ष को उत्पत्ति मान लेने परजसंगशि यह है कोक से दूसरे के प्रथम समय में पूर्ववेह का परिशाटन और उत्तरदेह का संघात दोनों को एकसाथ उपपत्ति होती है वैसे एककाल में चारित्रनाश और मोक्ष की उत्पत्ति दोनों की उपपत्ति हो सकती है जैसा कि-'जम्हा विगच्छमाणं' इस प्रागम में कहा गया है-'यतः विमतिक्रिया में विद्यमान विगत होता है और उत्पद्यमान उत्पन्न होता है अतः परभव-जन्मातर के समय पूर्वशरीरपरिशाट और वेहान्तरोत्पत्ति के एककाल होने में कोई विरोष नहीं है ।' तात्पर्य, मुक्तिवशा में चारित्र को अनृवृत्ति मानने को आवश्यकता नहीं है ।
[ चारित्र का अभाव मानने पर कोई आपत्ति नहीं ] यदि यह शङ्का हो कि-'सिद्ध में चारित्र का अभाव मानने पर चारित्रमोहनीय कर्म से उसके पुनर्जन्ष की आपत्ति होगी-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पुनर्बन्ध प्रविरति से तथा योग आदि सामग्री की अपेक्षा से होता है, सिथ में अविरति एवं योगादि का अमाप होता है अत: उसके पुनर्बन्ध को
त नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि-'चारित्र का अमावही अविरति है, सिद्धों में विरतिपरिणाम-चारित्रपरिणाम न होने से अविरति विद्यमान है, तात्पर्य-उनके पारिवाभाव में अधिरतिपरिणामस्व का सार्थक व्यपदेश हो सकता है. अतः अविरतिरूप में व्यपविष्ट चारित्राभाव से पुनर्बन्ध की आपसि तस्वस्थ है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि असे निर्जराजनक विरतिपरिणाम निर्जरा के जनन में स्वतन्त्र होता है वैसे ही विचित्रकर्मबन्ध का जनक प्रविरतिपरिणाम भी कर्मबन्ध के जनन में स्वतन्त्र होता है, क्योंकि वह विरति के प्रागभाव से विशिष्ट होने पर भी विरति के प्रपुनमविरुप ध्वंस से विशिष्ट नहीं होता। यदि यह विरति के ध्वंस से विशिष्ट होकर कर्मबन्ध का जनक होता तो आगन्तुक विरतिध्वस का मुखापेक्षी होने से स्वतन्त्र न होता । विरति प्रागभाव से विशिष्ट विरतिध्वंस को जनक मानने पर उसके स्वासन्य को हानि नहीं हो सकती पोंकि विरतिप्रागभाव अनावि होने से उसका सन्निधान पहले से प्राप्त रहता है, फलत: चारित्राभाव में अविरति का व्यपवेश करके पुनबन्ध को आपत्ति का प्रदान नहीं हो सकता।