SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 145
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२० । [शास्त्रवास्ति लो० २६ शीचरमसमय एव मोक्षोत्पत्यभ्युपगमाव , तदा चारित्रस्यामपायात् । इह बोदि त्यक्त्वा तत्र गरवा सिध्यति' इत्यत्र निश्चयेन बोंदित्यागसमये, व्यवहारेण च तत्र गतिसमये मोक्षोत्पादस्याभ्युपगमात् । न च तदा चारित्रस्य विगच्छत्त्वाद् विगतत्वेनाऽसत्त्वात् कार्योत्पत्तिविरोषः, तदा मोक्षस्याप्युत्पद्यमानत्वेनोत्पत्रित्वादविरोधाद, एकदा चारित्रनाश-मोचोत्पादयोः परभवप्रथमसमये प्राग्देहपरिशाटनीचरदेहसंघातनयोरिखोपपतः सदागम:-[ वि०मा० ३३२२] "जम्हा विगच्छमाणं विगयं, उप्पज्जमाणमुप्पण्ण । तो परमवाइसमए मोक्खादाणाण | विरोहो ॥१॥" इति । को क्रियारूप मानने में बारित्र को प्रक्रिया बतानेवाले बचनों से विरोष अनिवार्य है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एकही भन्स किया एजन (कम्पन प्रादि व्यापार का प्रभाव होने से अक्रिया कही जाती है मतः उसे अक्रियास्वरूप से मोक्षकारक कहने में, तथा 'ज्ञाननियाभ्यां मोक्ष:'-शाम और क्रिया से मोल होता है इत्यादि वचनों में उसी अन्त क्रिया अन्तिम क्रियारूप होने से क्रियास्वरूप से मोक्षजनक कहने में कोई विरोध नहीं हो सकता। [निश्चयनय से चारित्र में मोक्षहेतुत्व का समर्थन ] उक्त बात मा पर यह शक हो साफ-सिभि को यात्रा के समय चारित्र का नाशमाना जायगा सो चारित्र मोक्ष का हेतुन हो सकेगा क्योंकि जो कार्यकाल में विद्यमान होता है यह कार्य का उत्पादक नहीं हो सकता क्योंकि उसके अभाव में कार्य का जन्म होने पर कार्य द्वारा उसके मन्वय और व्यतिरेक का अनुसरण नहीं होगा। यदि यह कहा जाय कि-'कार्य के अव्यवहिसपूर्वक्षम में विद्यमान होना ही कारणता है, उसके स्वरूप में कार्यकाल में भी विद्यमान होने का सनिवेश नहीं है क्योंकि कारणता के स्वरूप में उसके सनिवेश में कोई प्रमाण नहीं है प्रत्युत गौरव है, और प्रागमाव आदि को कारणसा के लोप का भय भी है क्योंकि कार्य का प्रागमाव कार्य के जन्म. काल में कभी नहीं रहता-सो यह ठीक नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर निश्चय नय को अन्याय होगा क्योंकि निश्चयनय के अनुसार क्रियाकाल और निष्ठाकाल एक होने से कारणक्षण में ही कार्योस्पति शक्य है अर्थात कार्यकाल में विद्यमान हेतु ही कार्य का जनक होता है' । तात्पर्य, मुक्तिकाल में भी चारित्र की सत्ता माननी पड़ेगी'-किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि परिशुद्धनिश्रय नय के अनुसार तो शैलेशी के अन्तिम समय में ही मोक्ष की उत्पत्ति होती है और उस समय चारित्र का अभाव नहीं होता। क्योंकि वह बोविं त्यक्त्वा तत्र गत्वा सिदयतिः केवली इस लोक में बोदि (शरीर) का स्याग कर और लोकान्त में पहुंच कर सिद्ध होता है इस वचन में निश्चय नय के अनुसार बोखित्याग के समय ही मोक्ष की उत्पत्ति मानी गई है और व्यवहार नय के अनुसार सिद्धि गति में जाते समय मोक्ष की उत्पत्ति मानी गई है। शैलेशी के अन्तिम समय में चारित्र बिगमनाशक्रिया में विद्यमान होने से विगतमोजाता हैमतःप्रसव हो जाने से कार्य की उत्पत्ति असंगत है', यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उस समय [१. यस्माद् विगच्छद् विगतम् , उत्पद्यमानमुत्पन्नम् । ततः परभवादिसमये मोक्षाऽऽदानयोन विरोध: ।१।]
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy