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स्पा... टोका एक हिन्दीविवेचन j
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नन्वेवं चारित्रं क्रियारूपं पर्यवसायम् , श्रूयते चाऽक्रियायाः सिद्धिगमनपर्यवसानफलत्वम् ; तथा चार्षम्-'सा भंते ! अकिरिया किंफला १ गोयमा ! सिद्धिगमणपज्जवसाणफला पत्ता" इति कथं न विरोधः १ इति चेत् ! न, अन्तक्रियाया एवैजनादिव्यापाराऽमावेनाऽक्रियात्वेन, चरमकर्मत्वेन च "झान-क्रियाभ्यां मोक्षः" इत्यादौ क्रियात्वेनोक्तरविरोधात् । अथ सिद्धिगमनसमये चारित्रनाशोपगमे चारित्रस्य मोक्षहेतुत्वं न घटेत, कार्यकालेऽसता कायस्योत्पादयितुमशक्यत्वात् , कार्यानुकृतान्वय-व्यतिरेकिंस्वाभावात् । न प कार्याव्यवहितपूर्ववृत्तित्वमेव कारणत्वम् , न तु तत्र कार्यकालवृत्तित्वमपि निविशते, मानाभावात, गौरवात् , प्रागभावादीनामकारणत्वप्रसगाच्चेति न दोष इति वाच्यम् , तथापि निश्चयनयानुपस्कारात्, तेन कार्यकालसंबद्धस्यैव हेतोर्जनकत्वाभ्युपगमाद । इति चेत् ? न, परिशुद्धनिश्चयनयेन शैले
उत्पत्ति हो मी जाय तो यथाख्यात प्रादि पांच से विजातीय ही होगा, असे मतिज्ञानावि से केबलबान विजातीय ही होता है अतः उसके द्वारा चारित्र के पश्चषाविभाग का व्याघात अनिवार्य होगा।
इस सन्दर्भ में जो यह बात कही गई कि-'केवल ज्ञान की उत्पत्ति के समय परमोत्कर्ष प्राप्त शान पोर वर्शन केहोने पर भी मोक्ष की प्राप्ति न होने के कारण केवलकान के। चरमोत्कृष्ट चारित्र का उबय मानना आवश्यक है-वह भी ठीक नहीं है क्योंकि नयमेव से अथवा अन्तक्रिया के द्वारा शैलेशोदशा में अबस्थामेव से ज्ञान और क्रिया को मोक्षजनक मानने से केवलज्ञान के उत्पन्न होते ही मोक्षप्राप्ति न होने में कोई आपत्ति नहीं है ।
सिद्धि वश में सर्वसंबर की उपपत्ति के लिये भी उक्त चारित्र की कल्पना अनावश्यक है क्योंकि सिद्धि प्राप्त होने पर वह अर्थतः सिद्ध हो जाता है, उसके लिये किसी हेतुविशेष की कल्पना अनुचित है।
दूसरी बात यह है कि शैलेशोअवस्था के पूर्वकालिक क्षायिक चारित्र की निवृत्ति का जब भाप स्वीकार करते हैं और परमचारित्र को सिद्धि दशा में मानते हैं तो सामान्यरूप से चारित्र मात्र को सादि और सान्त बतानेवाले मो शास्त्रवचन उपलब्ध होते हैं उनमें चारित्रपद को यथाल्यातनामक परमचारित्र से अतिरिक्त पारित्र परक मानना पडेगा, यह न्यायसंगत नहीं है ।
[ अक्रिया से मोक्ष सूचक वचन की संगति ] यदि यह कहा जाय कि-'चारित्र के सम्बन्ध में किये गये उक्त विचार से पारित्र क्रियारूप हो जाता है और शास्त्रों में मुक्त प्रात्मा के सिद्धिक्षेत्रगमन को अकिया का घरमफल बताया गया है जैसा कि 'सा णं भंते"इस ऋषिवचन से उक्त प्रश्नोत्तर से स्पष्ट है । गौतमने भगवान से प्रश्न किया है कि 'भगवन् ! अक्रिया का क्या फल है ?' भगवान ने गौतम को उत्तर दिया है कि 'गौतम, इसका मन्तिम फल है आत्मा का मुक्त होकर सिदिक्षेत्र में गमन करना। प्रब अगर कहा आए कि चारित्र १. सा भगवन् ! अक्रिया किंफला ? । गौतम ! सिद्धिगमनपर्यवसानफला प्रज्ञप्ता !