________________
११८ ]
[ शास्त्रवास्तिक ६ श्लो० २६
मोचोत्पः, गणान्यातलोनैन नप पशजल वान विभागव्याघात इति चेत् १ न, तपरतो योगानां चरित्राप्रतिपन्थित्वेन तदपगमे परमयथाख्यातचारित्रानुत्पत्तेः, उत्पत्ती का यथाख्यासात्तस्य मतिज्ञानादेः केवलज्ञानस्येव विजातीयत्वेन विभागव्याघातात् । ज्ञान-क्रिययोनयमेदादन्तक्रियाद्वारा शैलेश्यामवस्थामेदाद् वा मोक्षजनकत्वोपपत्रः सर्वसंवरस्याप्यर्थसिद्धत्वात् , तदर्थ हेतु भेदकल्पनानौचित्यात् । शायिकस्यापि सतः शैलेश्यर्वाचीनधारित्रपरिणामस्य निवस्युपगमे चारित्रस्व सामान्यतः सादिसान्तत्वप्रतिपादकवचनेषु चारित्रपदस्य परमयथाख्यातातिरिक्तचारित्रपरत्वस्याऽन्याय्यस्वाच्चेति दिग् ।
चिछनत्वरूप प्रतियोगी के असिद्ध होने से उसका अभाव मी सिम नहीं हो सकता क्योंकि जगत में अलीकप्रतियोगिक अभाव नहीं हो सकता, असिद्ध प्रतियोगी का अभाव अमान्य है।"-यह दोष सभी होता अगर उत्तरकाल में फलामाद रूप अविकारित्व न मान कर उत्तरफलावच्छिन्नस्थ के अमाव को प्रविकारित्व माना जाता। .. चारित्र उत्तरकाल में फलशून्य होता है, इस बात में यदि प्रमाण पूछा जाय तो उसका उत्तर यही है कि तत्त्वार्थ सूत्र में शाम, वर्शन, चारित्र इन तीन रत्नों की उत्कृष्ट समष्टि को जो मोक्ष का जनक कहा गया है, उस कथन की अन्यथानुपपत्ति ही उस में प्रमाण है। कहने का आशय यह है कि परिचारित्र सर्वदा उत्तरकाल में किसी मोक्षातिरिक्त लौकिक फल से युक्त ही होगा तो वह मोक्ष का जनक ही न हो सकेगा, अत: उसे मोभजनक कहना उपपन्न न हो सकेगा, प्रतः सिद्धिदशा में पारित्र को उत्तरफल से शून्य मानना आवश्यक है। यदि यह कहा जाय कि-बारित्र मोक्ष का जनक नहीं है किन्तु केवलमान और दर्शन ही मोक्ष के जनक है'-तो यह उचित नहीं हो सकता क्योंकि केवलज्ञान की उत्पत्ति के समय धरम सस्कर्ष को प्राप्त ज्ञान और दर्शन के होने पर भी चरमोत्कर्षप्राप्त चारित्र को उत्पत्ति न होने तक मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती, जब कि प्रतिबन्धक काय आदि योगों निरुद्ध हो जाने पर ययाख्यात नामक सर्वोत्कृष्ट चारित्र की उत्पत्ति होने पर मोक्षसामग्री का सानिधान होने से मोक्ष की प्राप्ति होती है । तात्विक दृष्टि से योग यपि चारित्र का प्रतिबन्धक नहीं है किन्तु जैसे अघोर भी चोर के सम्पर्क से चोर कहा जाता है वैसे हो चारित्र के तस्वत: अप्रतिबन्धक भी योग चारित्र के प्रतिबन्धकमोह का वशमगुणस्थान पर्यन्त सहचारी होने से प्रतिबन्धक कहे जाते हैं। मोक्ष के जनक सर्वोत्कृष्ट परमचारित्र का यथास्यातस्वरूप से चारित्र के पांचवे भेद में मन्तर्भाव होने के कारण चारित्र के पश्चधा दिमाग का ध्याघात भी नहीं हो सकता। इस प्रकार यह शङ्का मिषिरूप से उत्पन्न हो सकती है कि सिद्धि दशा में विकारो चारित्र का प्रभाव होने पर भी मविकारी चारित्र का अस्तित्व हो सकता है।
[चारित्र उपपादक नव्यमत का निरसन ] किन्तु एकनयमत की दृष्टि में उक्त समर्थन ठीक नहीं मचता क्योंकि सिद्धि वशा में जिस अधिकारी याख्यात परमचारित्र के अस्तित्व को सम्भावना की जाती है, तस्वदृष्टि से योग के चारित्रका प्रतिबन्धक न होने से योग का अभाव होने से उसकी उत्पत्ति नहीं हो सकसी और यदि