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________________ स्या क० टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [ ११७ -...-. . - - - अथ चरणदानादिलब्धीनां विकारिणीनामेव सदानीमुपक्षयः, अविकारिणीनां तु सुतरां संभवः, विकारिंगुणोपक्षयेऽविकारिगुणप्रादुर्भावनियमादिति चेत् ? किमिदं विकारित्वं ? शरीराद्यपाया अस्तमानत्वं पा, शानियतापक्षोत्पांकित्व वा, फलावच्छिन्नत्वं वा १ । नाधा, केवलज्ञानादेरपि तथाभावप्रसङ्गाद । न द्वितीयः, तन्नाशनियतनाशप्रतियोगित्वस्यैवेत्थं प्रसङ्गात् । नापि कृतीयः, फलानवच्छिमतदुत्पत्ती मानाभारात , चारित्रस्य फलावच्छिन्नत्यनियमात् । अथोत्तरफलानच्छिन्नत्वमविकारित्वम् , तच्चोत्पत्युत्तरसमयावच्छेदेन फलाभारवश्वम्। तेन नोत्तरफलसिद्धथसिद्धिभ्यां व्याघातः । मानं च चारित्रस्थ तथात्वे रत्नत्रयसाम्राज्यस्य मोक्षसामग्रीयोक्त्यन्यथानुपपत्तिरेवः केवलोत्पत्तिसमये काष्ठाप्राप्तयोनि-दर्शनयोरुत्पादेऽपि चारित्रस्य तथाभूतस्यानुत्पादादेव मोक्षविलम्यात; यथा खल्यचौरोऽपि चौरसंसर्गितया 'चौरः' इति व्यपदिश्यते तथा तत्वतश्चारित्राऽप्रतिपन्धित्वेऽपि तत्प्रतिपन्थिमोहसाहचर्याद् योगाना तथा व्यपदिश्यमानानां प्रतिवन्धकानामपगमादुत्पन्नेन परमयथाख्यातचारित्रेण सामग्रीसंपत्त्या [ अविकारि चारित्रगुण के ऊपर तीन विकल्प ] प्रस्तुत विषय में यह शङ्का हो सकती है कि-'दानादिलब्धि और चारित्रहप जो विकारो गुण होते हैं उन्हीं का सिद्धिदशा में नाश होता है किन्तु जो अविकारी गुण होते हैं उनका अस्तित्व तो उस दशा में भी अनिवार्य है क्योंकि विकारीगुण का नाश होने पर अविकारीगुण की उत्पत्ति का नियम है।' इस शङ्का के सम्बन्ध में यह प्रश्न है कि विकारित्व क्या है ? (१) शरीर आदि की अपेक्षा से प्रवर्त्तमान होना अथवा (२) अपनी उत्पत्ति में नियम से शरीर को अपेक्षा करता, किंवा (३) फलयुक्त होना ? इनमें प्रथम पक्ष स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उसे विकारित्व मानने पर शरीर को अपेक्षा से प्रवत्तमान होने के कारण केवलज्ञान भो विकारी हो जायगा फलतः सिद्धिदशा में उसके भी नाश की प्रापत्ति होगी। दूसरा भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उसे विकारित्व मानने पर शरीर का नाश होने पर नियत शरीरापेक्षोत्पत्तिक का नियमतः नाश भी होने की प्रापत्ति होने से उक्त दोष तदवस्थ रहेगा, क्योंकि आद्य केवलज्ञान भी नियत शरीरापेक्षोत्पत्तिक है अत: शरीर नाश के साथ उसका नाश भी भी नियमतः हो जायेगा। तीसरा भो स्वीकार्य नहीं हो सकता, क्योंकि तीसरे विकारित्व मानने पर चारित्रमात्र में फलसम्बन्ध का नियम होने से फलहीन चारित्र को उत्पत्ति में कोई प्रमाण न होने के कारण अधिकारी चारित्र को कल्पना हो नहीं की जा सकेगी। [ अविकारित्वरूप चारित्र के उपपादन का नव्य प्रयास ] यदि यह कहा जाय कि-'विकारित्व उत्तरफलावच्छिन्नत्वरूप है और उसका अमाव है अविकारित्व । उत्तरफलावच्छिन्नत्व के अभाव का अर्थ है उत्तरकाल में फलाभाववत्त्व, प्रतः उत्तरफलाच्छिन्नस्वाभाव को अधिकारिस्वरूप मानने पर दोष नहीं हो सकता कि-"सिद्धि दशा के चारित्र का उत्तरफल यत्रि सिद्ध है तो उसमें उत्तरफलावच्छिन्नत्वाभावरूप अविकारित्व का ध्याघात होगा और यदि उत्तरफल सिद्ध नहीं है तो भी व्याघात होगा. क्योंकि जब उत्तर फल है ही नहीं तो उत्सरफलाव
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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