________________
११६ ]
[ शास्त्रमा स्तश्लो० २६
न चावस्थानाशेन शाश्वतस्यापि चारित्रस्य सादिसान्तस्वमुपपद्यते, भवस्थत्वावस्थानाशेन केवलज्ञानस्यापि तवप्रसङ्गात् केवलभावेन केवलस्य शाश्वतत्ववादिनाऽप्यवस्थाविशेषनियतनाशोत्पादोपगमाव; अन्यथा वैलक्षण्याऽसिद्धः। तथा च सम्मतिकार:-[वि. काण्डे ]
''जे संघयणाईआ भवत्थकेयलिविसेसपज्जाया।
ते सिज्झमाणसमए ण होति विगयं तो होइ ॥१॥ 'सिद्धत्तणेण य पुणो उप्पण्णो एस अस्थपजाओ।
केवलमावं तु पहुच केवलं दाइ सुत्ते ॥२॥" [सम्मति २/३५-३६] फलित होता है । अतः सम्यक्त्व प्रावि को निवृत्ति के निषेष सेवालाविलन्धि आदि चारित्ररूप क्षायिकभाव की निवृत्ति का होना ज्ञाप्त होता है।
. सूत्र में यद्यपि सम्वतः सुख की निवृति का निषेध नहीं है किन्तु सिद्धत्वशब्द से भावतः मुखरूप सिद्धत्व की निवृत्ति का निषेध है। अतः सुख की अनिवृत्ति का प्रसंग्रह नहीं हो सकता । सुखरूप सिद्धत्व को निवृत्ति के प्रसक्त न होने से उसको निवृत्ति के निषेध को प्रप्रसत का प्रतिषेध कह कर प्रसंगत नहीं बताया जा सकता। क्योंकि सिद्ध परुष में शरीर प्रावि निमित्त के अभाष से सख और सिद्धत्व की अनुपपत्तिका लिगति प्रसता है ! बातः कमी मिति का निक्षेत्र अप्रसक्त का प्रतिषेध नहीं है।
सूत्र में सम्यक्त्व आदि को निवृत्ति के निषेध से दानादिलम्धिरूप क्षायिकमाव को निवृत्ति का
कारण ही भाष्यकारने कहा है कि जैसे औपशमिक सम्यक्त्व और चारित्रसादि एवं सान्त है वैसे हो दानादिलब्धिरूप क्षायिक धारिष भी सादि एवं शान्त है ।।
[शाश्वत चारित्र में सादि-सान्तत्व की अनुपपत्ति ] . यदि यह कहा जाय कि-'अवस्थानाश से शाश्वतचारित्र में भी सादित्व और सान्तत्व की उपपत्ति की जा सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अवस्थानाश से शाश्वतचारित्र को सादि सान्त मानने पर भवस्थस्थ अवस्था के नाश से केवलज्ञाम का भी नाश होने से उसमें मो सादि-सान्तत्व को मापत्ति होगी क्योंकि जो केवलज्ञान को केवलमाव से शाश्वत मानते हैं वे भी अवस्था विशेष के नाशउत्पाद से केवलज्ञान का भी नाश-उत्पाद मानते ही हैं। दूसरी बात यह है कि यदि अवस्थानाश से चारित्र को सादि-सान्त कह कर उसको सर्वथा निवृत्ति नहीं मानेंगे तो सिद्धदशा में केवलज्ञान और चारित्र में जो सुत्रसिद्ध विलक्षणता है वह विलक्षणता न हो सकेगी। सम्मतिकार ने इस बात को इन शब्दो में कहा है कि-'सिद्धि प्राप्त होने पर मवस्थकेवली के संहनन प्रादि विशेषपर्याय नई सिद्धि को प्राप्ति से उन पर्यायों से कुछ अभेदभावापन्न केवलज्ञान का भी विगम हो जाता है । सिद्धस्वरूप से केवलज्ञानाख्य अर्थपर्याय उत्पन्न होता है । सूत्र में केवलभाव यानी सत्ता को लेकर केवलज्ञान को अपर्यवलित कहा गया है। १. ये संहननादिका भवस्थकेवलिविशेषपर्यायाः । ते सिध्यमानसमये न भवन्ति विगतं ततो भवति ।।१।। २. सिद्धत्वेन च पुनरुत्पन्न एषोऽर्थपर्यायः । केवलभावं तु प्रतीत्य केवलं दर्शितं सूत्रे ।।२।। ३, दानादिलब्धिः --दान-मोग-उपभोग-लाभ वीर्य ये पांच लब्धि ।
लामोने केक