SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 140
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्था० क० टोका एवं हिन्वीणिवेचन ] इति विशेषावश्यक चारित्रवीर्ययोनिवृत्तिरादुक्तैव । सूत्रेऽपि "औपशमिकादिभव्यत्वाऽभावाचान्यत्र केवलसम्यक्त्व-ज्ञान-दर्शनसिद्धत्वेभ्यः" [ त० पू०१०-४ ] इत्यत्र । अत्र हि औपशमिकमायोपमिकौदयिकभावानां दर्शन झान-गत्यादीनां, पारिणामिकभावस्य च भव्यत्वस्य (निवृत्त), 'अन्यत्र केवल.' इत्यादिना चानन्तज्ञान-दर्शन-सम्यक्त्वानामनियमधानात एकविशेषनिषेधस्प तदितरविशेषाभ्यनुशाफलत्वाद् दानादिलब्धि-चारित्ररूपस्य च क्षायिकभावस्य निवृसिर्लभ्यत इति । सिद्धत्वमेव च भावतः सुखामात विषक्षयान सुखानिारयनुपग्रहः सुखसिद्धत्वयोनितिश्चानुत्पचिरूषा प्रतिषिध्यत इति नाऽप्रसक्तप्रतिषेधः । अत एव च "सम्मत्त-चरिचाई साइ-संतो अ उपसमिओ अ । दाणाइलद्धिपणगं चरणं पिय खाओ भावो ॥१॥" [वि. भा. २०७८ ] इति ग्रन्थेन दानादिलब्धिपश्चक-चारित्ररूपस्य घायिकभावस्य स्फुटमौपशमिकसम्यक्त्वचारित्रभाववद सादिसान्तत्वं भाष्यकृतोक्तम् । [[वीर्यरहित सिद्धों को चारित्र कैसे १] इस प्रसंग में यह मी विचारणीय है कि चारित्र शुद्धवीर्यरूप होने से बीयहीन सिडों में उसके मस्तित्व का प्रभ्युपगम कैसे किया जा सकता है ? 1 सिख आस्मा में वीर्य अभाव असिब है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि 'प्राप्ति' में (व्याख्याप्राप्ति सूत्र में कहा गया है कि-'जो प्रसंसारी अवस्था को प्राप्त कर लेते हैं वे सिद्ध होते हैं और सिद्ध अवीर्य होते हैं। यदि यह कहा जाय कि-'सित में सर्वथा बोर्य का प्रभाव बताने में प्रज्ञप्ति' का तात्पर्य नहीं है किन्तु करणवीर्य काममाष बताने में है-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि सिद्धों में 'लन्धिवीर्य मानने पर 'शैलेशी अवस्था में पहुंचे हुये लब्धिवीर्य से सबीर्य और करणबीर्य से वीर्य होते हैं। इस आशय के सूत्र के समान प्राप्ति के उक्त वचन को 'सिद्ध लब्धियोर्य से सपोर्य होते हैं और करणवीर्य से अबीर्य होते हैं। इस प्राशय के सूत्ररूप में कल्पना की आपत्ति होगी। दूसरी बात यह है कि “विशेषावश्यक भाष्य' में सिद्धों में वीर्य की निवृति और चारित्र का न होना शब्दतः नहीं किन्तु अर्थतः कह मो दिया गया है। क्योंकि उसमें यह स्पष्ट निर्देश है कि सम्पवस्व ज्ञान, दर्शन, सुख और सिद्धस्व को छोड़कर सिद्ध के औषयिक आदि भावों और भव्यत्वको निवृत्ति एकसाथ ही होती है। 'तस्वार्थाधिगम' के दशवें अध्याय के चौथे सूत्र में भी यह कहा गया है कि सिवात्मा में सम्यक्त्व, जान, दर्शन और सिद्धत्व से अतिरिक्त औपमिक आदि भाषों मोर भव्यत्य का अभाव होता है । उस सूत्र के उत्तरभाग में बर्शन, ज्ञान, गहि आदि औषमिक.भायोपशामक, औवयिकभावों की तथा पारिणामिक भावरूप मध्यस्व की निवृति एवं अनन्त ज्ञान, शंन और सम्यक्त्व को अनिवृत्ति का निर्देश किया गया है। यह न्यायप्राप्त है कि एक विशेष के निषेष से अन्य विशेष का अभ्युपगम १. लब्धिवीर्य ---गुप्त यानी अप्रगट शक्तिरूप वीर्य। २. करणवीर्य प्रगट शक्तिरूप वोयं ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy