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[ शासवा० स्त० १०/५५-५६ प्रसिद्धयर्थः, इदानीमपि अस्मिन् कालेऽपि अतीन्द्रिये अनागतव्याध्यादिपरिणामे सुवैद्यसंयतादीनां निपुणभिषग्वरपरिणतयोगमुनिप्रभृतीनाम् , अविसंवादि अर्थक्रियाक्षमम् दृश्यते ।।५५|| प्रकृते योजनामाह--
एवं तत्रापि तद्भावे न विरोधोऽस्ति कश्चन ।
तदधक्तार्थाविरोधादौ ज्ञानभावाच्च सांप्रतम् ॥५६॥ एवं-सुवैद्यादीनां व्याध्यादिपरिणाम इव तत्रापि गुणवत्पुरुषेऽपि तद्भावे विशिष्टचेष्टोपलब्च्या प्रातिभातिशयालोचनभावे, न विरोधोऽस्ति कश्चनन बाधकमस्ति किञ्चित् , असाक्षाइशिनोऽपि न संभवत्येतदित्यर्थः । तथा, तद्व्यतार्थाऽविरोधादौ-तदुपदिष्टागमार्थाऽन्याघातादौ विषये, आदिना संवादादिग्रहः, झानभावात् ज्ञानोत्पादाच्चे, सांप्रतम् इदानीम् , चकारेण तत्कालोऽपि समुच्चीयते, 'न विरोधोऽस्ति कश्चन' इत्यनुपज्यते । ननु किमेतत् पातिभम् !, चेष्टादिलिअज्ञानाल्लिनिज्ञानमेवैतत् ? न, व्याप्त्यादिप्रतिसन्धानानपेक्षत्वात् । 'अस्तु तर्हि अनुमितविषय स्मरणं प्रत्यभिज्ञानं वा ।' न, विशदत्वात् , तद्वदनपेक्षत्वाच्चेति द्रष्टव्यम् ॥५६॥
जससे अनेक सद य है जिन्हे रोग के भावी परिणामों का जो सम्प्रति अतीन्द्रिय है-प्रातिभसान हो जाता है, पत्रं ऐसे अनेक मुनिजन है जिन की योगसाधना परिपक्व हो चुकी हैं उम्र भी अतीन्द्रिय अर्थ का मानसशरन हो जाता है और यह घिसंवादी (अन्यथा ) नहीं होता अपितु उस के द्वारा वांच्छित अर्थक्रिया का सम्पादन होता है |॥ ५५ ॥
[गुणवान् पुरुप में प्रातिभातिशय अविरुद्ध ] ५६वीं कारिका में प्रातिभशान के अस्तित्व में जो युक्ति बतायी गई है. प्रस्तुत कारिका द्वारा उस की योजना सर्वज्ञ पुरुष के अतिशय ज्ञान के साधन में बतायी गयी है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है
जिसप्रकार सुवैद्य आदि को व्याधि आदि के भावी परिणामों का प्रातिभशान होता है उसीप्रकार अतिशयगुण सम्पन्न पुरुष की भी विशिष्ट चेष्टानों को देख कर उस में विद्यमान अतिशय का ज्ञान उस के असाक्षाही को भी हो सकता है-ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है। पर्व पुरुष द्वारा रचित आगम के प्रतिपाद्य पूर्वोत्तरवर्ती विषयों में अन्याधात पथं अन्य. प्रमाणों के साथ संवाद आदि के ज्ञान से भी उस पुरुष के अतिशय का ज्ञान होने में कोई विरोध नहीं है। यह अधिरोध वर्तमान समय और ऐसे पुरुष के अस्तित्व के समय में भी निर्विवाद है। यदि यह कहा जाय कि-'जिस प्रातिभशाम से पुरुषविशेष के अतिशय की जानकारी प्राप्त होने की बात कही जा रही है वह प्रातिभशान, चेष्टा आदि लिङ्ग के शान से पुत्पन्न अतिशयरूप लिङ्गी के ज्ञान से भिन्न नहीं है। -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि लिङ्गी का ज्ञान अर्थात् अनुमान, व्याप्ति आदि के ज्ञान की अपेक्षा करता है किन्तु प्रातिभशान उस की अपेक्षा नहीं करता है। यदि यह कहा जाय कि-' प्रातिभक्षान अनुमितिविषय का स्मरण है अथवा पूर्वज्ञात की उत्तरकाल में होने वाली प्रत्यभिज्ञा है.' -तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रातिभशान विशद स्पष्ट होता है और स्मरण-प्रत्यभिज्ञात्मक ज्ञान विशद नहीं होता है । साथ