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या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
[ १८९
एवंभूतोऽपीदानीं न दृश्यते, अतो नास्त्येवेत्याशङ्कानिवृत्त्यर्थमाह
न चास्यादर्शनेऽप्यद्य साम्राज्यस्यैव नास्तिता । संभवो न्याययुक्तस्तु पूर्वमेव निदर्शितः ॥ ५४ ॥ न चास्य = अशेष संशयनिर्णयकर्तुः अदर्शनेऽभ्यद्य = सांप्रतम् साम्राज्यस्येव = चक्रवत्यदिराज्यस्येव नास्तिता = अभाव एव किन्त्वस्तिते । न हीदानीं साम्राज्यमपि ( न ?) दृश्यते न च कदापि नास्तीति । स्थादेतत्-संभवति तदिति न तदभावः इत्यत्राह - संभवस्तु - 'अस्य' इति वर्तते, न्याययुक्तः=अनुकूलतर्कोपस्कृतः पूर्वमेव निदर्शितः 'दोषाणां हा सदृष्ट्या (का० ५२ ) इत्यादिनेति समानमेतदिति ॥ ५४ ॥
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एवमनुमानातिशयज्ञान्दमुक्त्वा भूयोऽनुभवाहितपटुक्षयोपशमबलाद व्याप्यादिप्रतिसंधाननिरपेक्षण प्रकृष्टमतिज्ञानेनापि तदाह---
प्रातिभालोचनं तावदिदानीमध्यतीन्द्रिये । सुवैद्य संयतादीनामविसंवादि दृश्यते ॥५५|| प्रातिभालोचनम् = ध्यादिपरिणामविषय मनपेक्षितव्या प्रत्यादिप्रतिसंधानं मानसज्ञानम्, तावच्छन्दः
२५ कारिका द्वारा इस शंका का निराकरण किया गया है कि- अतिशय युक्त सर्वत पुरुष का दर्शन वर्तमान में कहीं नहीं होता। अतः उस का कभी न होना ही मानना उचित है । ' कारिका का आशय यह है कि जैसे चक्रवर्ती का साम्राज्य सम्प्रति नहीं देखा जाता, किन्तु इतने मात्र से यह नहीं माना जा सकता किं चक्रवर्ती का साम्राज्य कभी नहीं था । उसीप्रकार मनुष्य * समय संशयों को दूर करने में समर्थ अतिशयसम्पन्न सर्वेश पुरुष का इस काल में दर्शन न होने पर भी यह मानना उचित नहीं हो सकता कि उस का अस्तित्व कभी नहीं था। यदि यह कहा जाय चक्रवर्ती का साम्राज्य होना सम्भव है, इसलिए उस के अदर्शन से उम का मादिक अभाव नहीं माना जा सकता. पर सर्वज्ञ पुरुष का अस्तित्व सम्भव नहीं है । अतः उस के अदर्शन से उस का नार्वेदिक अभाव मानना ही उचित है तो यह ठीक नहीं है. क्योंकि सर्वज्ञपुरुष के सम्भव होने के समर्थक तर्क का ' दोषाणां हासरट्या '... इस कारिका (५२) द्वारा कर दिया गया है। अर्थात् उस कारिका द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि चारित्र के पालन से राम आदि दोषों का हास देखा जाता है । अतः यह सम्भव है कि चारित्र के पान में ओर झाम की साधना में निरन्तर लगे पुरुष के सम्पूर्ण रागादि दोषों का किसी दिन क्षय हो जाय और वह क्षीणदोष हो कर सर्वेश बन जाय । इसलिए चक्रवर्ती साम्राज्य और पुरुष दोनों का अस्तित्व समानरूप में सम्भावित है ॥ ५४ ॥
[ अतीन्द्रिय अर्थों के प्रातिभज्ञान का अस्तित्व ]
उक्त रीति से अनुमान द्वारा अतिशय को ज्ञान होता है, यह बता कर २५ वीं कारिका द्वारा यह बताना है कि दीर्घ अनुभव से उत्पन्न सामर्थ्यशाली क्षयोपशम के बल से ऐसा प्रकृष्ट मतिज्ञानात्मक अतिशयज्ञान हो सकता है जिस में व्यामि आदि ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती । कारिका का आशय यह है - यह प्रसिद्ध है कि इसप्रकार का प्रातिभालांचन अर्थात् बुद्धि आदि के परिणामों को विषय करने वाला मानसिक ज्ञान होता है, जिस में व्याप्ति आदि ज्ञानों की अपेक्षा नहीं होती। इस ज्ञान का अस्तित्व वर्तमान काल में भी उपलब्ध होता है।
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