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[ शामवार्ता० स० १०/५३ दोषाणारागादीनाम्, हासदृष्टया प्रतिपक्षभावनाबलेन देशतो नाशदर्शनेन । तेन जन्मादीनामपि हासदर्शनात् ऋदाचिदत्यन्तहाससभबाद् महापल्याभ्युपगमः परेषां निरस्यते, तत्प्रतिपक्षाभावेन तदत्यन्तहासाऽयोगात, धर्महासेन तन्मूलशुभजन्मादिहासेऽपि षष्ठारकादाबधर्ममूलजन्मादिपरिग्रहादिति द्रष्टव्यम् । इह-जगति, तत्सर्वेक्षयसभवात तेषां रागादानां प्रतिपक्षोत्कर्षेण सर्वक्षयोपपत्तः, तत्सिद्धौ कचिदतिशयसिद्धौ ज्ञायते प्राज्ञैः तम्य अधिकृतस्य अतिशय इत्यपि ।।१२।।
कथम् ! इत्याहहृदनाशेषसंशीतिनिर्णयादिप्रभावतः । तदात्वे, वर्तमाने तु तद्वयक्तार्थाऽविरोधतः ।।५३॥
हृद्गतानामशेषसंशीतीनां निर्णयो निराकरणम् आदिना इष्टेष्टाऽविरुद्धोक्तिसामर्थ्यग्रहः, तयोः प्रभावोऽतिशयव्याप्यत्वं ततः, तदात्वेसर्वज्ञसद्भाचकाले यादप्यतः, वर्तमाने तु-सांप्रतं पुनः, तद्वयक्तार्थाविरोधतः तेनातिशययता व्यक्त उपविष्टो च आगमस्तदर्थपौर्वापर्याऽव्याघातेन केवलेनैवेति ॥५३।३ कोई कठिनाई नहीं होती कि अमुक अधिकारी पुरुष उम अतिशय से सम्पन्न है, जिस से सर्वज्ञता की प्राप्ति हो सकती है।
राग आदि दोषों के हास से गग आदि के आत्यन्तिकक्षय की जो बात कही गयी है। उस से यह नहीं समझना चाहिए कि-'जन्म आदि का कभी अत्यन्त हास हो सकता है, जिस से किसी दिन विश्य का महामन्थ्य भी सम्भव है जैसा कि नैयायिकों का कथन है ' -क्योंकि प्रतिपक्ष के बल से ही अत्यन्त हास सम्भव होता है। जन्म आदि का ऐसा कोई प्रतिपक्ष नहीं है जिस के उत्कर्ष से जन्म आदि का अत्यन्त हास हो सके । धर्म जम्मका एक
का एक कारण है और उस का हास भी होता है किन्तु उस के हास में शुभ जन्म का ह्रास अवश्य हो सकता है किन्तु उस से अधर्ममूलक जाम आदि की निवृत्ति नहीं हो सकती क्योकि शुभ जन्म के कारणभत धर्म का नाम हो जाने पर छटा आरा इत्यादि काल में अधर्ममूलक जन्म आदि होने की बात आगमों द्वारा वर्णित है । अत: किनी काल में विश्व के महाप्रलय की सम्भावना नहीं हो सकती । इसलिए रागादि दोषों से अतिशय गुणविशेष सम्पन्न पुरुष की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है । अतः प्राश कनों द्वारा पुरुष विशेष में अतिशय का अवबोध दुष्कर नहीं है ।। ५२ ॥
[संशय का उच्छेद और पूर्वापर अव्याघात से अतिशय का पता] २३ वी कारिका में पूर्व कारिका दाग उक्त अर्थ की उपपत्ति का प्रकार बताया गया हैजिस से ग्रह विषय पर होता है कि अतिशय सम्पन्न सर्वज्ञ पुरुष के जीवनकाल में उस के अतिशय का शान दो बातो से होता है। एक यह कि उम में मनुष्य के हृदय में विद्यमान सम्पूर्ण संशयों को हर करने की शक्ति होती और दुसरी बात यह है कि उसका पचन दृष्ट और इष्ट का विरोधी नहीं होता है । यह दोनों ही बातें अतिशय की व्याप्य है अर्थात् जिम पुरुष में अतिशय नहीं है उस में उपर्युक्त बातें नहीं होती है। उस के अतिशय का शान उस के द्वारा रचित आगम के प्रतिपाय विषयों में पीपर्य का व्याघात न होने से सम्पन्न होता है, क्योंकि जो व्यक्ति अतिशय से युक्त नहीं होता वह जिस ग्रन्थ की रचना करता है उस में वर्णित पूर्यापर अर्थों में घिरोध की सम्भावना अवश्य होती है, सर्वथा अव्याहत अर्थ का प्रतिपादन अतिशय सम्पन्न पुरुष ही कर सकता है ।। ५३ ॥