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________________ स्या. क. टीका-हिन्दी विषवन ] [ १९१ ननु यदि नाम दृष्टे संवादः, तथाप्यदृष्टेऽर्थे तथाविधप्रातिभस्याऽप्रामाण्याशका न निवर्तत एवेत्यप्रयोजकं तदित्याशङ्कापोहायाह-- सर्वत्र दृष्टे संवादाददृष्टे नोपजायते। ज्ञातुर्विसंवादाशङ्का तद्वैशिष्टयोपलब्धितः ॥५७।। सर्वत्र हटेऽर्थे संवादात अर्थक्रिया क्षमत्वदर्शनात् , अदृष्ट धर्मादौ नोपजायते ज्ञातुः प्रमातुः विसंवादाला किरिशा यशा बा' इति ! कुतः ! इत्याह-तस्य व्यञ्जकस्य व्यक्तस्य वा माध्यम्याधुपायाभिधानादिना विषयतोऽविसंवादिजातीयत्वेन स्वरूपातश्च वैशिष्टयोपलब्धितः-प्रामाण्यव्याप्यधर्मवत्तोपलम्भात् ||५|| ही स्मरण को पूर्व अनुभव तथा प्रत्यभिज्ञा को पूर्व अभिशा की अपेक्षा होती है और प्रातिभज्ञान को उन की भी अपेक्षा नहीं होती है। अतः प्रातिभशान एक निरपेक्ष ज्ञान है जिस मे पुरुप विशेष को अतिशय का ज्ञान निर्वाधरूप से सम्पन्न हो सकता है ॥ ५६ ॥ [ अदृष्ट वस्तु में विसंवाद की आशंका का निराकरण ] ५७ घौं कारिका द्वारा इस शंका का परिहार किया गया है कि पृष्ट अर्थ में प्रातिभशान दी अर्थक्रिया की क्षमता के दर्शन से प्रमाणभूत माना जा सकता है किन्तु अदृष्ट अर्थ के प्रातिभज्ञान में अप्रामाण्य शंका की निवृत्ति नहीं होगी, क्योंकि उस में संवाद सम्भव नहीं है । अतः यह अदृष्ट अर्थ की सिद्धि में अप्रयोजक है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है सभी दृष्ट अर्थों में पातिभज्ञान का संवाद मिलने से अदृष्ट अर्थ के विषय में भी प्रातिभ. झान में ज्ञाता को विवाद की -अर्थात् 'यह घस्तु जिस रूप में शाम हो रही है वैसी ही है अथवा अन्यप्रकार की है। इसप्रकार की शंका नहीं हो सकती, क्योंकि प्रातिभमान विषय की दृष्टि से अधिसंवादी-दृष्पार्थविषयक-प्रातिभशान का मजातीय है और स्वरूप की दृष्टि से इस में वैशिष्टय की प्रामाण्यव्याप्यधर्म की उपलब्धि होती है। इसलिए अषिसंवादीजातीयत्व एवं विशेषधर्म के दर्शन से और प्रामाण्यव्याप्य धर्म के दर्शन से अप्रामाण्य शंका का प्रतिबन्ध हो जाता है । और अमामाण्य शंका के विरोधी ये दोनों ज्ञान आगमकर्ता पुरुष अथवा उस के द्वारा प्रणीत आगम में माध्यस्थ्य आदि उपाय के प्रतिपादन से सम्पन्न होते हैं। कहने का आशय यह है कि आगम कर्ता पुरुप मध्यस्थ होता है । किसी भी पक्षविशेष' में उस का पक्षपात नहीं होता । उस से प्रणीत आगम में इसप्रकार के पक्षपात का अभाव होता है इसलिए आगमकर्ता के सम्बन्ध में जो अतिशयग्राही प्रातिभज्ञान उत्पन्न होता है उस में अविसंवादजातीयता और प्रामाण्यव्याप्यधर्म का ज्ञान होने में कोई बाधा नहीं होती है। इसलिए प्रातिभशान द्वारा प्रामाण्यशका का प्रतिबन्ध मामने में कोई आपत्ति नहीं है। तात्पर्य यह है कि जब प्रातिभशान सभी दृष्ट अर्थों में यथार्थ होता है तब यह शंका करने का कोई औचित्य नहीं है कि अदृष्ट अर्थ में वह अयथार्थ होगा | अतः प्रातिभशान से पुरुष विशेष में अतिशय की सिद्धि को अवास्तविक कहना कथमपि उचित नहीं हो सकता ||५७॥
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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