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________________ १९२ ] [ शास्त्रवा० स० १०/५८-५९ अस्त्वेवमविसंवादकत्वाभिमानात प्रातिभं प्रवृत्त्याधुपयोगि, वस्तुस्थित्या तु तद विसवाद्यवेत्याशक्याह-- वस्तुस्थित्यापि तत्तादग् न विसंवादकं भवेत् । ___ यथोसरं तथा दृष्टेरिति चैतन्त्र सांप्रतम् ।।५८॥ वस्तुस्थित्यापि-परमार्थेनापि ताहग-मार्गानुसारि तत्-प्रातिभम् न विसंवादकम्= अर्थक्रियाऽक्षमम् भवेत् । कुतः ? इत्याह-यथोत्तरं-क्रियाप्रवृत्त्यनन्तरम् , (तथा=) सुवैद्यप्रातिभवदर्थक्रियोपधानेनाऽनिसंवादकतया दृष्टेः । इति च-एव च सति, एतद्-वक्ष्यमाणम् न सांप्रतम्-न भजगानम् ।।५।। ___किं तत् ? इत्याह-- मिद्धोत्प्रमाणं यद्यचमप्रमाणमथेह किम् । न ह्येकं नास्ति सत्यार्थ पुरुष बहुभाषिणि ॥२९॥ सिद्धयेत् प्रमाणमागमागम मदि, एतम एकताक्वार्थसंवादिवेन. अथेह प्रमाणं किम् ! न ह्येवं सति किञ्चिदप्रमाणं नाम पौरुषेयं वचनं युज्यते । कुतः ? इत्याह-न कं किमपि नास्ति सत्यार्थ वचनम्, किन्तु किञ्चिद् भवत्यपि पुरुष बहुभाषिणिको जल्पनीले । तथा च सर्वेपां वचन प्रमाणमापनमिति महाननथः ।।५।। ५८भी कारिका द्वारा इस शंका का निराकरण किया गया है कि प्रातिभमान अनि संयादित्य के अभिमान से प्रवृत्ति आदि में उपयोगी हो सकता है, किन्तु विषयभूतवस्तु की दृष्टि से यह विनचादी अयथार्थ ही है । ___ कारिका का वक्तव्य यह है कि उक्त प्रकार से उत्पन्न होने वाला प्रातिभज्ञान परमार्थ दृष्टि से-विषयभूत वस्तु की दृष्टि से भी विसंवादी-अर्थक्रिया के सम्पादन में अक्षम नहीं हो सकता, कि सुवैद्य के प्रानिमशान के समान उक्त ज्ञान से होने वाली प्रवृति के अनन्तर अर्थक्रिया सम्पन्न होने से उसे प्रातिभशान में भी अविसंवादिन्व की उपलब्धि होती है। अत. उसे प्रमाण मानने पर अप्रमाणभूत झाल के लोप हो जाने की निम्नोत शंका समीचीन नहीं है ।।५८ ।। ५९ वी कारिका में, पूर्व कारिका में निर्दिष्ट शंका का स्वरूप प्रस्तुत किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है किमी एक वाक्य में अर्थ का संबाद होने के आधार पर यदि पूरे आगम को प्रमाण माना जाएगा तो फिर अप्रमाण क्या होगा ? उक्त आधार से प्रामाण्य का निर्णय करने पर किसी भी पुरुष के किसी भी पचन को अममाण कहना युमिमंगत न होगा, क्योंकि बहुभाषी मनुष्य भी कोई ऐसा नहीं होता है जिस का पक वचन भी सत्य न हो, कोई-कोई श्चन तो सत्य होता है । अत: उस एक सत्यवचन के दृष्टान्त से उस का सारा यश्चन प्रमाण हो जाएगा। और यह आपत्ति मनुष्य मात्र के वचन के सम्बन्ध में होगी अतः अप्रमाणभूत वचन का मर्यथा लोग हो जाने का महान् अनर्थ उपस्थित होगा ! ५९ ॥ [आगमवचन में घुणाक्षरन्याय और विसंवाद का निरसन] ६० घी कारिका में, पूर्व कारिका में उक्त आशका की असंगति बताई गयी है । कारिका का भर्थ इसप्रकार है
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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