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स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
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यथैतदसांप्रतं तथाभिधातुमाह
यत एकं न सत्यार्थं किन्तु सर्वं यथाश्रुतम् । यत्रागमे प्रमाणं स इष्यते पण्डितेर्जनः ||३०|| यतः यस्मात् एकं=किञ्चिदेव वचनम् न सत्यार्थं घुणाक्षरन्यायेन, किन्तु सर्वमेवयथाश्रुतं = यथानुयोजित वचनम् यत्रागमे सत्यार्थम् सः = आगमः पण्डितैर्जनैः = परीक्षकर्लोकः, इष्यते=आमुष्मिकफलसिद्ध्यर्थमाद्रियते तथा च भृयः संवादिदर्शनाद् न घुणाक्षरीवत्वाशका विषयशुद्धिज्ञानाच्च न कचिद् विसंवादाऽऽशङ्केति भावः ||६||
विषयशुद्धिमेव व्यनक्ति
आत्मा नामी पृथकर्म तत्संयोगाद्भवोऽन्यथा ।
मुक्तिहिंसादी मुख्यास्तनिवृत्तिः ससाधना ॥ ६१ ॥
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आत्मा नामी =नारकादिरूपेण परिणामवान् तथा पृथक = पौद्गलिकत्रात्मनो भिनम् कर्म, तत्संयोगात् कर्मसंबन्धात् भवः संसारः; अन्यथा बस्तुसत्कर्मवियोगात् मुक्तिः । हिंसादयः कर्मसंयोग हेतवः मुख्या: निरुपचरिताम तथा तन्निवृतिः हिंसादिनिवृत्तिः सुसाधना = सह सावनरूपदेश क्षयोपशमादिभिर्निमित्तेवर्तमाना मुख्य ॥ ६१ ॥ तथाअतीन्द्रियार्थसंवाद विशुद्ध भावनाविधिः ।
यत्रेदं युज्यते सर्व योगिव्यक्तः स आगमः ||६||
आगम को इसलिए प्रमाण नहीं माना जाता कि उस का कोई एक वचन सत्य सिद्ध हुआ है, क्योंकि किसी एक वचन का सत्य होता पूरे आगम की सत्यता का आधार उसी प्रकार नहीं हो सकता जैसे कीडे द्वारा कतरज किये गये किसी कार में कभी कोई अक्षर बन जाना कीडे की लिपिता का आधार नहीं हो सकता । अतः विद्वान पुरुष उसी आगम को प्रमाण मानते हैं जिस का यथासंभव सम्पूर्ण वाक्य सत्य होता है । पारकि की सिद्धि के लिए विद्वान पुरुष ऐसे ही आगम को प्रमाण का सम्मान देते हैं। इसलिए आगम के प्रतिपाय बहुत्तर अर्थों में संपाद का दर्शन होने से उस में घुणाक्षर न्याय होने जैसी शंका नहीं की जा सकती और प्रतिपाद्य विषय की शुद्धता का ज्ञान होने से किसी अंश में विसंवाद की भी आशंका नहीं हो सकती || ६० ॥
६१ वीं कारिका द्वारा आगम की विषय शुद्धि व्यक्त की गयी है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है
आत्मा नामी होती है, नारक आदि रूपों में परिणमनशील होती है। कर्म पौगलिक होने से आत्मा से भिन्न तत्व है । उस के सम्बन्ध से आत्मा को संसार मान होता है और आत्मा और कर्म के वियोग से आत्मा को विमुक्ति की प्राप्ति होती है । हिंसा आदि कर्मसंयोग का मुख्य हेतु है । उपदेश और क्षयोपशम आदि साधनों से हिंसा आदि की वास्तव निवृत्ति होती है | ॥ ६१ ॥
चोपराग के निमित्त आदि अतीन्द्रिय अर्थों का संवाद एवं अनित्यत्व आदि की भावना का विधान जो स्वरूप और फल की शुद्धि से नितान्त निर्मल होता है तथा पूर्व कारिका में
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