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[ शामवार्ता० स्त० १०/६२-६३ अतीन्द्रियार्थानां चन्द्रोपरागनिमित्तादीनां संवादःतथा विशुद्धः संभवस्वरूपफलशुद्धया निमलः भावनाविधिः अनित्यत्वादिभावनामार्गः । यत्रेद अनन्तरोदितम् सर्व युज्यते-विचार्यमाणमुपपद्यते, योगिव्यक्तः सर्वज्ञपकाशितः सा आगमः, नान्यः, परीक्षाक्षमवचनस्यैव सम्यगागमलक्षणत्वात् ॥६२॥ _ 'ज्ञः अज्ञो वाऽस्याधिकारी स्यात् ! उभयथापि सिद्धयऽसिद्धिभ्यां वयर्थम् ' इति कुवादिकुतर्कनिराकरणार्थमाह-- अधिकार्यपि चास्येह स्वयमझे हि यः पुमान् । कथितज्ञः पुनीमांस्तद्वैयर्थमतोऽन्यथा ||६३||
अधिकार्यपि च अस्य आगमस्य इह-जगति 'सः' इति गम्यते यो हि पुमान् स्वयम्आगमश्रवणनेरपेक्ष्येण अज्ञः विषयाऽपरिज्ञाता; कथितज्ञः पुनः, न तु कथितमपि यो न जानात्येव । अत एवाह-धीमान् बुद्धयावरणक्षयोपशमवान् । अतोऽन्यथा उक्त विपर्यये सर्वथा ज्ञत्वेऽज्ञत्वे वा तद्वैयर्यम् आगमवैययम् , तत्कथाप्रीत्यादिलिझनावेत्यैवाधिकारिता पुनरध्यापनादौ न तवैयर्थ्यम् । अनधिकारिप्रयोगे हि लोकसंज्ञाप्रवेशात् प्रयोक्तैव प्रयोज्याऽविधिसमासेवनजनितं महदकल्याणमासादयेत् । इति लिकरधिकारितामवेत्याध्यापने नागमाऽऽगमज्ञादिवैयर्थ्यमिति निपुणं विभावनीयम् ॥६॥
कही हुई सारी बातें जहाँ विचार के निकप पर कसने पर सत्य सिद्ध होती है, वही आगम आगम सर्वशरचित होता है, क्योंकि जो बचन परीक्षा करने पर सत्य सिद्ध होता है. उमी को सम्यक् आगम कदा जाता है । ६२ ।।
स्वयं अज्ञ और कथितज्ञ पुरुष आगम बोध का अधिकारी] आगम के सम्बन्ध में कुवादियों का यह कुतर्क है कि पिन अथवा अज्ञ किसी को भी आगम का अधिकारी मानने में आगम का धैयर्थ्य होगा, क्योंकि विज्ञ के लिए आगम की कोई आवश्यकता नहीं है और अज्ञ के लिए उस की कोई उपयोगिता नहीं है। प्रस्तुत ६३ वीं कारिका में इस कुतर्क का निराकरण किया गया है। कारिका का अर्थ इसप्रकार है___जो पुरुप स्वयं अक्ष है, अर्थात् आगम के बिना जिसे आगमार्थ का ज्ञान नहीं है किन्तु कथित को समझने की जिसे बुद्धि है, जिस के बुद्धि के आवरण का ऐसा क्षयोपशम हो चुका है, जिस से वह उपदेश को समझ सकता है, ऐसा पुरुष मागम का अधिकारी है । ऐसे पुरुष से भिन्न पुरुष को तथा सर्वथा अशको अधिकारी मानने पर ही आगम का वैयर्थ्य हो सकता है । आशय यह है कि आगम में वर्णित विषयों के प्रवण में प्रीति श्रद्धा आदि लिङ्ग से अधि. कारिता का ज्ञान कर के आगम का अध्यापन करने पर उस का वैयर्थ नहीं हो सकता । अनधिकारी के प्रति यदि आगम का प्रयोग किया जाय तो प्रयोक्ता की वह प्रवृत्ति सीर्फ जनरमनप्रधान हो जाती है और प्रयोज्य के इस अविधि सेवन से प्रयोक्ता का महान अकल्याण होता है । इसलिए यह ज्ञातव्य है कि उचित लिङ्ग द्वारा अधिकारी को पहचान कर आगम का अध्यापन करने पर आमम और आगमज्ञ आदि की व्यर्थता नहीं हो सकती ।। ६३ ।।