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________________ १०२ ] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २१ "यस्य पुनः केवलिनः कर्म भवत्यायुपोऽतिरिक्ततरम् ।। स समुद्धातं भगवानथ गच्छति तत्समीकतुम् ॥१॥" सम्यग्-अपुनविन, उत्-प्राबल्येन हननं समुद्यातः-शरीराद् बहिर्जीवप्रदेशाना निःसारणम् । अयं चात्र क्रमः-प्रथमसमये स्वदेहतुल्यविष्कम्भमूर्ध्वमधश्चायतं लोकान्तमामिनं जीवप्रदेशसंघातं दण्डाकारं केवली करोति, द्वितीयसमये तु तमेव दण्डं पूर्वापरदिग्द्वयप्रसारणात पावतो लोकान्तगामिनं कपाटमिव कपाटं करोति, तृतीयसमये तु तदेव कपाटं दक्षिणोत्तरदिग्द्वयप्रसारणाद् मन्थानमिव मन्थानं करोति लोकान्तप्रापिणमेव । एवं च लोकस्य प्रायो बहु बात यह है कि मोक्षार्थी जब क्षायिक ज्ञान, दर्शन, चारित्र और बीर्यातिशय को सम्पत्ति से युक्त होकर भवधारक कर्म के प्रभाव से कम से कम 'अन्तमुहत्तं तथा अधिकाधिक किचिद् न्यून पूर्वकोटि यष तक विहार करता है तथा अब उसका प्रायुःकर्म समानस्थिति वाले नाम, गोत्र तथा येवतीय कर्मों के साथ अन्समुहूत्तमात्र ही शेष रह जाता है तब वह मन याक तथा 'बादरकाय योग के निरोब द्वारा गुमम काययोग में राख हो कर सामाफियापतिपाति नाम के तृतीय शुक्लध्यान में प्रवेश करता है। पहले वह बावरकाय योग से बाबरवाग्योग तथा मनोयोग का निरोध करता है। उसके बाद सूक्ष्म काययोग से बादरकाययोग का निरोध करता है, क्योंकि बादरखागयोग के रहते सूक्ष्मकाययोग का निरोष ठीक उसीप्रकार शक्य नहीं होता जैसे दौड़ते समय कम्प का निरोध शक्य नहीं होता । सम्पूर्ण बादरयोग का निरोध करने के पश्चात् केवली सूक्ष्मकाय योग के द्वारा सूक्ष्म वाग्योग और सूक्ष्ममनोयोग का निरोध करता है । अन्तमुहत्तं प्रायु शेष रहने पर जब उसके शेष तीन कर्मों की स्थिति अन्तर्मुहूर्त से अधिक काल सक होती है तब उन कम के समीकरण के लिये स्थितिघात और रसघात आदि के निमित्त केवली समुद्घात करता है । समुवघात का अर्थ है-जोध के प्रवेशों का शरीर से इसप्रकार का बहिःप्रसारण जिससे कर्मों का अपनर्माबरूप से प्रबलधात हो जाय । इस तथ्य को एक कारिका में प्रकट किया गया है उसका अर्थ इसप्रकार है जिस केवली के कर्म आयुः कर्म से अधिक काल तक स्थायी होता है वह उन कर्मों का समीकरण करने के लिये समुद्घातक्रिया करता है। समुद्धात शब्द का यौगिक अर्थ है-जीव प्रदेशों का शरीर से इस प्रकार का बहिःप्रसारण जिससे कर्मों का अपुनर्भावरूप से प्रबलघात हो जाय। [समुद्घात की सविस्तर प्रक्रिया इस क्रिया का क्रम इसप्रकार है-केवली सर्वप्रथम जीव के प्रवेश समूह को दण्ड के आकार में परिवत्तित करता है। वह घण्टु लोकान्त तक लम्बा होता है, उपर और नीचे की ओर उसका विस्तार होता है । उसको रचना-स्थलता केवली के देह की स्थूलता के समान होती है । दूसरे समय दण्डाकार जोव प्रदेशों को कपाट (विशाल फलक) के आकार में परित्तित करता है, उसका फैलाव १. अन्तमुहूर्त-घटिकाद्वयान्तर्गत काल को अन्तमुहर्त कहते हैं। २. किंचिद् न्यूनपूर्वकोटि-१ पूर्व =७०५६० x १० वर्ष । ३. बादरकाययोग-काया के स्थूल व्यापार बादर काययोग है।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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