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स्था० क० टोका एवं हिन्दीविवेचन ]
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ततः केवललामोत्तरम् , सा=महात्मा, सर्वविद् भूत्वा केवलीभूय,-'भूत्वा घटस्तिष्ठति' इत्यादाविवोत्पत्यनन्तरं निष्ठा-इति व्यवहारनयाभिप्रायादित्थमुक्तिः, भवोपग्राहिकर्मणः-जात्यपेक्षयकवचनम् , भवोपग्राहिणां वेदनीय ऽऽयुर्नाम-गोत्राणाम् , ज्ञानयोगात् समुद्घात-चरमशुक्लद्वयध्यानरूपायस्थाविशिष्टज्ञानरूपादेव योगात , क्षयं कृत्वा आत्मनः पृथग्भावं विधाय, शाश्वतम् अपुनरावृत्तनित्यम् , मोक्षं महानन्दं प्राप्नोति । तथाहि-अयं खलु भगवान् क्षायिकज्ञान-दर्शन-चारित्र-वीर्यातिशयसंपत्समन्धितो जघन्यतोऽन्तमुहूर्तम् , उत्कर्षतश्च देशोनपूर्वकोटिं भवोपग्राहिकर्मवशाद विहरन् यदाऽन्तमु हूर्तपरिशेषायुष्कस्तत्तुल्यस्थितिकनाम--गोत्र-वेदनीयश्च भवति तदा मनो-वाग्-यादरकाययोगनिरोधादुपगतसूक्ष्मकाययोगस्तृतीयं सूक्ष्मक्रिया प्रतिपाति शुक्लध्यानमध्यास्ते । तथाहि-प्रथमं बादरकाययोगेन चादरौ वाङ्मनसयोगी निरुणद्धि । ततः अश्मकाययोगेन यादरकाययोग निरुणाद्ध सति तस्मिन् सूक्ष्मयोगस्य निरोधुमशक्यत्वात् । न हि धावन वेपथु वास्यतीति । ततश्च सर्वचादरयोगनिरोधानन्तरं सूक्ष्मेण काययोगेन सूक्ष्मौ वाङ्मनसयोगी निरुणद्धीति । यदा स्वन्तमुहूर्तायुष्काधिकतरस्थितिशेषकर्मत्रयो भवत्यसौ, तदा तत्समीकरणाय स्थितिघात-रसघाताद्यर्थे समुद्घातं करोति । तदुक्तम्
[ सर्वकर्मक्षय की अन्तिम प्रक्रिया ] २१वौं कारिका में केवलज्ञान प्राप्त होने के बाद की स्थिति का वर्णन है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-मोक्षार्थी महात्मा केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद सर्वश बन कर मन में पकड कर रखने वाले कर्मों का ज्ञानयोग द्वारा नाश कर के शाश्वत-नित्य मोक्ष को प्राप्त करता है । 'मोक्षार्थी केवलशान का लाभ पाकर सर्वज होता है।' यह कथन प्रापाततः यद्यपि प्रसंगत लगता है क्योंकि एक ही वस्तु में पूर्वापरभाव की संगति नहीं होती तथापि व्यवहार नय से उत्पत्ति और स्थिति में भेद की कल्पना कर जैसे 'भूत्या घटस्तिष्ठति-घट उत्पन्न होकर स्थित होता है-इस व्यवहार का समर्थन किया जाता है, वंसे हो केवलज्ञान के उदय और केवलीभाव से स्थिति में भेद की कल्पना कर व्यवहार नय से उक्त कथन का भी समर्थन किये जाने में कोई बाधा नहीं हो सकती । भवोपग्राही कर्म का एकवचनान्त निर्देश जाति की अपेक्षा से किया गया है अतः एकवचनान्त कर्मशब्द से किसी एक कर्मव्यक्ति का ग्रहण न होकर भयोपग्रह के कारणभूत कर्म के सजातीय सभी कर्मों का ग्रहण होता है । वे कम चार जाति के हैं, वेदनीय कर्म, आयु कर्म. नामकर्म और गोत्रकर्म । इन कर्मों का क्षय उस ज्ञान से होता है जो अन्तिम शुक्लध्यानद्वयरूप समुद्घात की अवस्था में पहुंचकर योगस्वरूप हो जाता है । ज्ञानयोग से कर्मों का जो क्षय होता है वह आत्मा से उनका पृथग्भावरूप है न कि उनका प्रात्यन्तिकस्वरूपनाशरूप, इस कर्मक्षय से शाश्वत मोक्ष की प्राप्ति होती है। शाश्वत मोक्ष का अ नित्य निरतिशय आनन्द । मोक्ष नित्य होता है क्योंकि मुक्त को पुनरावृत्ति पुनर्जन्मप्राप्ति नहीं होती।