SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १०.] [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो. २१ ततोऽसावासन्नकल्याणः समुत्खातप्रचुरापायो द्वितीयं शुक्लध्यानमवलम्बत एकत्त्रवितर्कस(अ)विचाराख्यम् । इदं च कपरमाण्वादावेकमेव पर्यायमालम्ब्यत्वेनादायाऽऽहितान्यतरैकयोगबलमाश्रितव्यतिरिक्ताशेषार्थ-व्यञ्जनयोगसंक्रमविषयचिन्ताविक्षेपरहितमत्यन्तमेकाग्रम् , आद्यशुषलेऽथ-व्यञ्जनयोगेषु यथासंक्रमक्रम' निवृत्त्यभ्यासाद् , अत्र सर्वविषयेभ्यो व्यावाणुमात्रे मनसो धरणात् , मात्रिकेण मन्त्रबलात् सर्वागतस्य विषस्य दंशदेशे धरणवत् । सुकरं हि ततस्तदपनयनमिति । अत्र खलु ज्ञान-दशेन-चारित्राण्येकीमा प्रकर्ष च यान्ति, बोध-श्रद्धाना-ऽनाश्रवरूपत्वात् , फलाभिमुखत्वात् , वीतरागमाराच । ततोऽस्मात् परमनिर्जरारूपाद् घासिकर्मचतुष्टयक्षये परमशुक्लध्यानद्वयस्याग्रं प्राप्यवाद् ध्यानान्तरे वर्तमानः केवली भवति कृतकृत्यः सकलसुरनिकायनायकपूजितचरणाम्भोज इति ॥ २० ॥ ततः किमित्याहमूलम्-ततः स सर्वविद् भूत्वा भवोपग्राहिकर्मणः । ज्ञानयोगात क्षयं कृत्वा मोक्षं प्राप्नोति शाश्वतम् ॥ २१ ॥ [प्रथम शुक्लध्यान द्वितीय शुक्लभयान पर ] जब मनुष्य पाद्यध्यान में परिनिष्ठित हो जाता है तब उसका कल्याण मोक्षलाभ सनिहित हो जाता है। बहुतर अपाय-उच्छिन्न हो जाते हैं और तब वह द्वितीय शुक्ल ध्यान का अवलम्बन लेता है। जिसे एकत्व वितर्क अविचार कहा जाता है। एकपरमाणु का एक ही पर्याय इस ध्यान का मालम्बन होता है। इसमें मन-वचन-काय तीन योगों में किसी एक के ही बल का आधान होता है। यहां जिस योगबल से जिस एक द्रव्य के जिस पर्याय का आलम्बन किया गया है उससे अन्य योग, अर्थ और व्यंजन में संक्रान्ति नहीं होती और इस ध्यान में अन्य विषयों की चिन्ता का विक्षेप भी नहीं होता इसलिये इसमें पुरी एकाग्रता होती है । आशशुक्लध्यान में प्रथं व्यजन और योग में संक्रम क्रम से निवृत्ति का अभ्यास हो जाने के कारण यहाँ सभी विषयों में व्यावृत्त होकर मन एक अणुमात्र में धारित होता है। एक अणुमात्र में धारित मन की उस अणु से निवृत्ति उतनी ही सरल होती है जितनी सर्प आदि से से मनुष्य को उस विष की वंशदेश में केन्द्रित होने पर निवृत्ति सरल होती है जिसे मन्त्रवध मन्त्र द्वारा सम्पूर्ण शरीर से खींचकर से हुए स्थान मात्र में स्थापित कर लेता है। द्वितीय शुक्लध्यान में ज्ञान, वर्शन और चारित्र क्रम से बोध, श्रद्धान तथा अनावरूप होने से, फलोन्मुख होने से, एवं वीतरागभाव प्रकट हो जाने से एकीमाव और उत्कर्ष को प्राप्त करते हैं । उसके पश्चाद इस परमनिर्जरारूप द्वितीय शुक्लध्यान से घाती चार कमों का क्षय होने पर, दो परम शुक्ल ध्यानों की प्राप्ति कालान्तर में होने वाली है अतः दो ध्यान युगल के अन्तर यानी ध्यानान्तर में विद्यमान मुनि केवली-केवलज्ञानसम्पन्न और कृतकृत्य हो जाता है । सम्पूर्ण देवसमूह के नायक इन्द्र उसक चरणकमल की पूजा करने लगते हैं ।। २० ।। १. प्रत्यन्तरे 'क्रम।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy