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________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्वीविवेचन ] [ १०३ I पूरितं भवति । चतुर्थसमये त्वनुश्रेणिगमनाद् मन्थान्तराण्यपूरितानि सह लोकनिष्कुटैः पूरयति । ततश्च सकलो लोको जीवप्रदेशैः पूरितो भवति । लोकपूरणश्रवणादेव हि परेषामात्मवित्ववादः समुद्भूतः, तथा चार्थवादः - विश्वतश्वशुरुत विश्वतोमुखो विश्वतोबाहुरुत विश्वतः पात्" इत्यादि । वदा चासो भवति समीकृतभवोपग्राहिकर्मा, विरलीकृतार्द्रशाटिकादिज्ञातेन क्षिप्रं तच्छोपोपपत्तेः । ततः पश्चमसमये मन्थान्तराणि जीव प्रदेशरूपाणि सकर्मकाणि संकोचयति । षष्ठे समये मन्धानमुपसंहरति, घनतरसंकोचाद। सप्तमे समये कपाटमुपसंहरति, दण्डात्मनि संकोचात् । अष्टसमये दण्डमुपसंहृत्य शरीरस्थ एव भवतीति । समुद्घातकाले च मनोत्राम्योगव्यापारप्रयोजनाभावात् काययोगस्यैव केवलस्य व्यापारः । तत्रापि प्रथमाऽष्टमसमपयोरौदारिकका यप्राधान्यादौदारिककाययोग एच, द्वितीय - षष्ठ- सप्तमेषु पुनरौदारिकाद् बहिर्गमनात् कार्मणीयैपरिस्पन्दादौदारिक- कार्मणमिश्रः, तृतीय- चतुर्थ--पञ्चमे - वदारिकाद् बहिर्वहुतर प्रदेशव्यापारादसहायकार्मणयोग एव । परित्यक्तसमुद्घातच कारणचशाद योगत्रयमपि व्यापारयति यथाऽनुत्तरसुरपृष्टौ मनोयोगं सत्यं वाऽसत्यामृषं वा प्रयुङ्क्तेः पूर्व और पश्चिम दो विशाओं में होता है, जो दोनों ओर लोकान्त तक लम्बा होता है। तीसरे समय वह उस कपाट को मन्थनदण्ड के रूप में परिवर्तित करता है, इसका फैलाव दक्षिण और उत्तर इन यो विशाओं में होता है, वह भी लोकान्स तक लम्बा होता है। इस क्रिया से लोक का प्रायः बहुमाग जीव के प्रदेशों से आक्रान्त हो जाता है। चौबे समय अनुश्रेणी गमन से मन्धनदण्ड के जो अन्तराल जीव प्रदेशों से अनाकान्त थे उन्हें केवलो लोकनिष्कुट पर्यन्त जीव प्रवेश से पूर्ण करता है, फलतः सम्पूर्ण लोक जीव के प्रदेशों से भर जाता है । जीव द्वारा सम्पूर्णलोक की इस पूर्ति के आधार पर ही न्यापर्वशेषिक दर्शन के आत्मविशुत्ववाय का उद्भव हुआ है। जैसे कि जीव द्वारा सम्पूर्ण लोक की इस पूर्ति का समर्थन एक are अर्थवाव वाक्य द्वारा किया गया है जिसका अर्थ इसप्रकार है- जोस का नेत्र, जोस का मुख, जीस का बाहु और जीस का पैर समूचे विश्व में फैला हुआ है। उत्तरीति से समुद्घात क्रिया द्वारा जब केवली के संसारपावक कर्मों का समीकरण हो जाता है तब उन कर्मों की निवृत्त बडी शीघ्रता से ठीक उसीप्रकार होती है, जिसप्रकार पूरे विस्तार में फैलाई हुई गोली साडी आदि की आता की निवृत्ति बडी शीघ्रता से होती है। पांचवें समय में केवली जीवप्रवेशरूप मानदण्ड के अन्तराल को कर्मों के साथ संकुचित करता है। छठे समय में अत्यन्त घन संकोच के द्वारा मन्थनava को संक्षिप्त करके कपाट करता है। सातवे समय में कपाट का संकोच कर के दण्डाकार बनाता है और आठवे समय में दण्डाकार को भी संक्षिप्त कर केवली समस्त जीवप्रदेशों के साथ अपने वर्तमान शरीर में अवस्थित हो जाता है । [ समुद्घात में योगव्यापार ] समुद्धात क्रिया के समय मनोयोग और बाग्योग के व्यापार का कोई प्रयोजन न होने से केवल काययोग का हो व्यापार होता हैं, उस अवधि में उसके पहले और आठवें समय में औदारिक
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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