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[ शास्त्रवार्ता स्त० ९ श्लो० २१
एवमामन्त्रणा काम्योगमपि, काययोगमपि फलकप्रत्यर्पणादाविति । ततोऽन्तम् हतेन योगं निरुन्धानस्तृतीयं शुक्लध्यानभेदं परिसमापयति । ततः स्वात्मनैव काययोगमचिन्त्यवीय प्रभाबाद् निरुन्ध्य समुच्छिन्नक्रियाऽनिवृत्तिसंज्ञं चतुर्थ शुक्लध्यानभेदं ध्यायति ।
अमनस्कत्वात् कथं केवलिनो ध्यानम् इति पर्यनुयोग एवं प्रत्यभिदधति - 'यथा कुलालचक्रे भ्रमणनिमित्तदण्डाद्यभावेऽपि पूर्वाभ्यासाद् भ्रमणम्, तथा मनःप्रभृतिसर्वयोगोपरमेऽप्ययोगिनो भ्यानं भवति । तथा, यद्यपि द्रव्यतो योगा न सन्ति तथापि जीवोपयोगरूपभावमनः सद्भावादयोगिनो ध्यानम् । यद्वा, ध्यानकार्यस्य कर्मनिर्जरणस्य हेतुत्वात् ध्यानं तदुच्यते, यथा पुत्रकार्यादपुत्रोऽपि पुत्र उच्यत इति । अथवा, हर्यादिशब्दवद् ध्यानशब्दस्य नानार्थस्वाद् ध्यानं तत् ; राधादि-'ध्ये चिल्लायाम्' 'खो' 'ये अयोगित्वे' वदन्ति हि
"निपाताश्चोपसर्गाश्च धातवश्चेति ते त्रयः । अनेकार्थाः स्मृता लोके पाठस्तेषां निदर्शनम् ॥ १ ॥ " इति । जिनागमाद्वाऽयोगिनो ध्यानम् इति ।
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काय की प्रधानता होने से प्रौवारिक काययोग का ही व्यापार होता है। दूसरे, छठे और सातवें में औदारिककाय से कुछ जीवप्रदेशों का बहिर्गमन होता है और वहाँ कार्मणशरीरवीर्य का परिस्पन्द होता है, इसलिए उन समयों में औदारिक और कार्मणशरीरों का मिश्र व्यापार होता है। तीसरे, चौधे और पव समय में जीव के बहुतर प्रदेशों का व्यापार औवारिकशरीर के बाहर होता है। उस समय कार्मणशरीर श्रीदारिकशरीर से असहकृत हो जाता है। समुद्धात पूर्ण हो जाने पर स्वदेहावस्थिल केवली कारणवश काययोग, मनोयोग और बाग्योग इन तीनों योगों को व्यापार युक्त बनाता है। जैसे- श्रनुत्तर देवताओं के प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत होने पर केवली सत्य अथवा असत्य-अमृषा मनोयोग का प्रयोग करता है । आमन्त्रण आदि में वाग्योग का प्रयोग करता है और पीठफलकादि के प्रत्यर्पण आदि में काययोग का प्रयोग करता है। इन सब के अनन्तर केवली अन्तर्मुहूर्त समय में योग का पूर्णतया मिरोध कर शुक्लध्यान को तीसरी अवस्था को समाप्त करता है उसके बाद अपने अचिन्तय वीर्य के प्रभाव से स्वयं ही काययोग का निरोध कर शुक्लध्यान की चौथी अवस्था को प्राप्त करता है जिसे जैनशास्त्र में समुच्छित क्रियाअनिवृत्तिनाम से व्यवहृत किया गया है।
केवली के ध्यान के विषय में यह प्रश्न हो सकता है कि केवलो तो अमनस्क होता है, फिर उसके द्वारा ध्यान कैसे सम्भव हो सकता है ? इस प्रश्न के उत्तर में जन विद्वानों का यह कहता है कि जैसे भ्रमण के निमित्त दण्ड प्रादि का सम्पर्क न रह जाने पर भो दण्ड द्वारा वेग से चालित कुलालचक्क में पूर्वाभ्यासवश भ्रमण होता है उसीप्रकार मन आदि समस्तयोगों की निवृत्ति हो जाने पर भी योगमुक्त केवली द्वारा ध्यानक्रिया भी हो सकती है। कहने का आशय यह है कि शुक्लध्यान का चौथी अवस्था में केवली को काय, वाक् और मनोयोग यद्यपि द्रव्यतः नहीं होते तथापि जीवोपयोगस्वरूप भाव मन उस समय भी होता है। अतः द्रव्यरूप में केवली के योगमुक्त होने पर भी भावरूप में योगयुक्त होने से वह ध्यान क्रिया का सम्पादन कर सकता है । अथवा उक्त प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा