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स्या. क. टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
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अत्र प्रथमो हेतुः कारणोपपत्चये, पूर्वसंस्काररूपहेत्वनपायाव, द्वितीयो लक्षणोपपत्तये, भावमनःस्थैर्यरूपलक्षणोपपत्तेः, तृतीयो व्यवहारोपपत्तये, चतुर्थः शब्दार्थोपपत्तये, पश्चमश्च प्रमाणोपपत्चय इति द्रष्टव्यम् । वस्तुतः सुदृढप्रयत्नव्यापार-विद्यमानयोगनिरोधान्यतरत्वमनुगतं पानलक्षणम् : सुध्दत्वं च जातिपिशेषः, तेन न समुद्घातादापतिव्याप्तिः, तथा च भाष्यकार:
''सुदढप्पयत्तवावारणं णिरोहो व विज्जमाणाणं | झाणं करणाण मयं ण य चित्तगिरोहमेत्तागं ॥१॥" [वि. आ. भा० ३०७१ ] विपश्चितमेतदन्यत्र।
जा सकता है कि शुक्ल ध्यान की बौथो अवस्था ध्यान के कर्मनिभरणहप कार्य का सम्पादन करती है। अतः ध्यान का कार्य सम्पादन करने से उसे ध्यान कहा जाता है यह कथन लोकध्या के सर्वथा अनुरूप है क्योंकि लोक में अपुत्र को भी पुत्र का कार्य करने के कारण पुत्र कहा जाता है। अपवा उक्त प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि ध्यान शब्द हरि आदि शब्द के समान अनेकार्थक है। अतः शुक्लध्यान को सौयो अवस्था मनःसाध्य चिन्तनरूप न होने पर भी ध्यान शाम्ब से अभिहित हो सकती है । ध्यान शम्द के अनेक प्रर्थ होते हैं यह बात धात्वयं के निरूपण के प्रसंग में बतायी गई है। जैसे 'ध्ये चिन्तायाम्' के अनुसार ध्यान चिन्तमरूप है । 'ध्ये काययोगनिरोधे' के अनुसार ध्यान काययोग का निरोषरूप है। और ध्ये अयोगित्वे के अनुसार ध्यान योगाभावरूप है। विद्वानों ने कहा भी है कि 'मिपात, उपसर्ग और धातु ये तीनों अनेकार्थक माने गये हैं । विभिन्न अयों में उनका प्रयोग उनकी अनेकार्थकता का साक्षी है।' अथवा उक्त प्रश्न के उत्तर में यह भी कहा जा सकता है कि केवली मनोयोग से मुक्त होने पर भी उसके ध्यान का होना या उसके द्वारा ध्यान का सम्पावन जैनागम से प्रमाणिसासका आशय यह है कि मनोयोगाविसे यक्त व्यक्ति के ध्यान में मनोयोग केवली के ध्यान में योगाभाव कारण है । दूसरो कारणता में, केवलो के ध्यान में योगामात्र कारण हैइस कारणता में केवलो के ध्यान का प्रतिपादक जैनागम हो प्रमाण है ।
[ अयोगि केवलिदशा में ध्यानसाधक हेतु पंचक का तात्पर्य ] प्रमनस्क होने पर भी केवली का ध्यान सम्भव है, इस बात की उपपत्ति में उपर ओ पांच हेतु बताये गये इनमें जो पहला हेतु है पूर्वाभ्यास, यह केवली के ध्यान का उपपादक है। इससे सूचित किया गया है कि केवली के ध्यान का कारण उपपन्न है और यह है पूर्वाग्यास । आशय यह है कि केवली होने के पूर्व मोक्षार्थी को जो ध्यान का अभ्यास होता है उससे ध्यान का संस्कार बन जाता है, और उसका अनुवर्तन केवली हो जाने पर भी होता रहता है । अत: केवली के ध्यान में कोई बाधा नहीं होती।
दूसरा जो हेतु है-द्रव्यमम का अभाव होने पर भी जोरोपयोगरूप भावमन का अस्तित्व, इस
१. सुनुप्रयत्नब्यापारणं निरोधो वा विद्यमानानाम् । ध्यानं करणानां मतं न च चित्तनिरोधमात्रकम् ।।३।।