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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० २१
ततयशुपत मेदेव सकलामयविष्टियानाकर पेन भवोपग्राहीणि कर्माणि समन्ताद् भस्मसात्कृत्यौदारिक-तैजस कामेणानि शरीराणीह त्यक्त्वा प्रदेशान्तराणि चाऽस्पृशन् ऋज्या श्रेण्यकेन समयेन याति सिद्धिक्षेनं साकारोपयोगोपयुक्तः। धर्मास्तिकायोपग्रहामावाद नोवं गच्छसि, गौरवाभावाश्च नाधो गच्छति, योगायोगविंगमाच नाधो गच्छति । उध्वं गतिस्तु तस्य १ गौरवप्रतिपक्षभूतलाघवपरिणामाद् धूमस्येव; २ यद्धा संगरिरहेण, तथाविधपरिणामत्वात अष्टमृतिकालेपत्रिलिप्तजलधिनिमग्नक्रमापनीतमृत्तिकालेपजलतलमध्योचंगामितथाविधालामुफलस्येव ३ बन्धनस्य कमलक्षणस्य विरहात् तथापरिणतेः कोशबन्धनविमुक्तैरण्डफलवत् ४ यदा, बहरूज़ज्वलनस्वभाववदात्मन ऊध्वगतिस्वभावत्वादिति ॥ २१ ।। हेतु से यह सूचित किया गया है कि केवलो को किया ध्यान के लक्षण से परिगहीत है । क्योंकि मन की स्थिरता को ही ध्यान कहा जाता है और केवली दशा में द्रव्यमन का उच्चछेद हो जाने पर भो भावमन को स्थिरता बनी रहती है।
तीसरा जो हेतु है ध्यान के कार्य कर्मनिर्भरण को जनकप्ता, इस हेतु से केवली की क्रिया में ध्यानराम्द के व्यवहार के प्रौचित्य का समर्थन किया गया है। आशय यह है कि कर्म निर्जरण का जनक होने से ही केवली के ध्यान को ध्यान शम्ब से सम्बोधित किया जाता है । अतः केवलो को जो किया कमनिर्जरण का जनक है उसे मी ध्यान शब्द से व्यवहृत करना सर्वथा उचित ही हैं।
चौथा जो हेतु है ध्यान शन्द की अनेकार्थकता उसका आशय यह है कि 'ध्यान' शम्ब के जो अनेक हैं उनमें केवली को मनोनिरपेक्ष क्रिया भी एक अर्थ है। इस हेतु से यह सूचित किया गया है कि केवलीको मनोनिरपेक्ष ध्यानसदृश क्रिया भी ध्यानशब्द का अर्थ है।
पास ओ हेतु है जिनागम-जैनशास्त्र, जिस में प्रयोगो केवलो के ध्यान का वर्णन है, इस हेतु से, केवली के ध्यान में प्रमाण का प्रदर्शन किया गया है।
ध्यान के सम्बन्ध में वास्तविकता यह है कि उसका अनुगत लक्षण भी है, जो केवली तथा अन्य लोगों की ध्यानतुल्य क्रियाओं में समन्वित होता है । वह है सुदृढ प्रयत्न से जन्य व्यापार अथवा विद्यमान योगों के निरोध आशय यह है कि सुदृढ प्रयश्न से चित्तको किसी वस्तु में व्यापारित जित करमा तथा विद्यमान योगों का-अनियन्त्रित रूप से संसार के विभिन्न विषयों को ओर दौडनेवालो इन्द्रियआदि का निरोध, इन दोनों में किसी एक को ध्यान कहा जा सकता है। केवली होने के पूर्व साधक या मोक्षार्थो का जो ध्यान होता है, वह सुदृद्ध प्रयत्न से चित्त का व्यापारण-मालम्बन विशेष में नियोजनरूप होता है, और केवलो हो जाने पर जो ध्यान होता है-वह विद्यमान योगों फा निरोधरूप होता है । इसप्रकार उक्त दोनों में से किसी एकरूप होना. ध्यान का यह लक्षण केवली और प्रकवली सभी के ध्यान में समन्धित हो जाता है। प्रयत्न में जो सुस्तत्व विशेषण दिया गया है यह प्रयत्नत्व की व्याप्य एक जाति है । जिस प्रयत्म से समुद्घास होता है उसप्रयत्नमें यह जाति नहीं रहती, अतः समुद्घात में ध्यान के उक्त लक्षण की प्रतिध्यारित नहीं होती। क्योंकि वह सुदृढ प्रयत्न से चित्त का व्यापारण अथवा विद्यमान योगों का निरोष, इन दोनों से भिन्न होता है।