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________________ I हमा० क० टीका एवं हिस्वीविवेचन ] [ १०७ यदुक्तं - "ज्ञानयोगात् क्षयं कृत्वा" इत्यादि तत्र "ज्ञानयोगस्तपः शुद्धम् " [स्त. १-२१] इत्यादिप्रागुक्तग्रन्थस्यैकवाक्यतानिरूपणं प्रतिजानीते 1 मूलम् - 'ज्ञानयोगस्तपः शुद्धमित्यादि यदुदीरितम् । ऐपण भावार्थस्तस्यायमभिधीयते ॥ २२ ॥ ‘ज्ञानयोगस्तपः शुद्धम्' [स्त॰ १-२१] इत्यादि यदुदीरितं पूर्वमुपन्यासग्रन्थे, ऐदंपर्येण = एकवाक्यतया भावार्थ:-फलीभूतोऽर्थः, तस्याऽयं बुद्धिप्रत्यक्षः, अभिधीयते = सांप्रतं निरूप्यते ॥ २२ ॥ ध्यान का यह लक्षण कपोलकल्पित नहीं है किन्तु अभियुक्त सम्मत है, क्योंकि माध्यकारने मो एकगाथा में इसी लक्षण का निर्देश किया है। गाथा का अर्थ इसप्रकार है ( सुदृढप्रयत्नव्यापारणं निरोधो वा विद्यमानानाम् । ध्यानं करणानां मतं, न च चित्तनिरोधमात्रकम् ) सुदृद प्रयत्न से व्यापारण- चित्त का विषयविशेष में नियोजन का विमान का विशेष (आणिक उत्थान के विरोधी विषयों से इन्द्रिय) आदि का प्रत्यावर्त्तन ध्यान है, केवल चित्त का निशेधमात्र ध्यान नहीं है।' इस विषय का विस्तृत प्रतिपादन अन्यग्रन्थों में भी किया गया है । [ शुक्लध्यान की चतुर्थ अवस्था और सिद्धि ] चौथी अवस्था के शुक्लध्यान में प्रवेश हो जाने पर केवलो उस ध्यान से संसार - सम्पादक समो कर्मों को भस्म कर देता है क्योंकि वह ध्यान सम्पूर्ण संसाररूपी जंगल को जलाकर भस्म कर देने वाले श्रग्नि के समान होता है। जब शुक्लध्यान से केवल) के सम्पूर्ण कर्म नष्ट हो जाते हैं, तब वह औदारिक, तंजस और कार्मण सभी शरीरों का त्याग कर अन्य किसी आकाश प्रदेश का स्पर्श न करते हुए किसी कालव्यवधान के बिना ही सोधे मार्ग से सिद्धिक्षेत्र मुक्त पुरुषों के विश्राम स्थल की यात्रा करता है, उस समय वह साकार उपयोग ( ज्ञानोपयोग ) में अवस्थित होता है । L धर्मास्तिकाय का सविधान न होने से मुक्त आत्मा सिद्धिक्षेत्र के ऊपर नहीं जाता है, गुरुत्व न होने से तथा काय आदि योग का सम्बन्ध न होने से नीचे भी नहीं जाता । शंका हो सकती है कि मुक्त प्रात्मा कायादि योग का सम्बन्ध न होने से जैसे नीचे नहीं जाता, बसे हो कश्यादि के अभाव में उसे ऊपर मो नहीं जाना चाहिए। इसका उत्तर यह है कि अयंगति के लिए कायादियोग का सम्बन्ध अपेक्षित नहीं होता किन्तु अधोगति के कारण मूत गुरुत्व के विरोधी लाघवरूप परिणाम की अपेक्षा होती है । अतः जैसे धूम उक्त लाघवरूप परिणामवश ऊपर की ओर जाता है, वैसे मुक्त आत्मा मी लाघवरूप परिणाम से ऊपर की ओर ही गतिशील होता है । अव यह भी कहा जा सकता है कि गुरुद्रव्य का संयोग न होने से उक्त परिणामण मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति होती है। मुक्त आत्मा की यह ऊर्ध्वगति ठीक उसी प्रकार होती है. जैसे चारों ओर मिट्टी का लेप कर जलाशय में डाले गये जल में डूबे लौको के सूखे फल तुमडी को जलाशय की सलेटी से उस समय ऊर्ध्वगति होती है, जब जल के सम्पर्क से धीरे-धीरे उसपर लिपटी हुई ससूखी मिट्टी घुल जाने पर उसे नीचे ले जानेवाले गुरुद्रव्य का उसमें संसर्ग नहीं रह जाता। अथवा यह कहा
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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