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[ शास्त्रवार्ता हत० २ श्लो० २३
मूलम् - ज्ञानयोगस्य योगीन्द्रः पराकाष्ठा प्रकीर्तिता । शैलेशी संज्ञितं स्थैर्य ततो मुक्तिरसंशयम् ॥ २३ ॥
तथाहि, ज्ञानयोगस्य-शुद्धतपोरूपस्य, पराकाष्ठा - उत्कृष्टा कोटिः प्रकीर्तिता, शैलेशोसंज्ञितं - शैलेशो मेरुस्तद्वभिश्वलावस्था, शैलेशः शीलेशी वा भगवांस्तस्येयमन्यशीलशान्यवस्थातिशायिन्यवस्था शैलेशी, सैव संज्ञा यौगिकी समाख्या जाता यस्य तत्, स्थैर्यम् = निवृतियत्नरूपं परमवीर्यम् । न चैवमयं न ज्ञानयोग इति शङ्ककनीयम्; ज्ञानस्यावस्थारूपस्वात् शैलेश्याः, पाकरक्तताया इव घटस्य । ततः - शैलेस्यां काष्ठा प्राप्ताज्ज्ञानयोगात, असंशयं ह्रस्वपञ्चाक्षरोहिरणमात्रकालेन मुक्तिर्भवति ॥ २३ ॥
जा सकता है कि कर्मरूप बन्धन का प्रभाव होने पर लाधधपरिणामवश मुक्त आत्मा की ऊर्ध्वगति ठीक उसी प्रकार होती है, जैसे बाह्य छिलके का बन्धन नष्ट होने पर एरण्डबीज को गति होती है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि जैसे ऊपर की ओर गतिशील होने के स्वभाव के कारण अग्निज्वाला की ऊर्ध्वगति होती है, उसी प्रकार ऊर्ध्वगतिशील स्वभाव होने के कारण मुक्त आत्मा की मी ऊर्ध्वगति होती है ।
[ शुद्ध तप स्त्ररूप ज्ञानयोग से मुक्ति ]
प्रथम स्तबक की इक्कोस कारिका में जो कहा गया था कि परलोक सुख आदि की इच्छा न रख कर जो तप किया जाता है, ज्ञान धौर संयम से परिपुष्ट वह तप ही ज्ञानयोग है और वही मोक्ष का साधक है- नवें स्तबक की इक्कीसवीं कारिका में ज्ञान और तप की एकता में उबासीन रह कर यह कहा गया है कि केवली ज्ञानयोग से संसार-सम्पादक कर्मों का क्षय कर के मोक्ष प्राप्त करता है । श्रतः आपाततः इन दोनों ग्रन्थों में भिन्नार्थता प्रतीत होती है। इसलिए उन दोनों में एकवाक्यता बताने का उपक्रम प्रस्तुत कारिका में किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है- शुद्ध तप ज्ञानयोग है और वह मोक्ष का साधक है यह बात उपन्यास ग्रन्थ अवतरणप्रत्य में जो पहले कही गयी है उसका froकृष्ट अर्थ एकवाक्यता द्वारा अब बताया जायगा ||२२||
योगीन्द्रों ने शुद्धतपरूप ज्ञानयोग की उत्कृष्ट कोटि को शंलेशी नाम से अभिहित किया है । शैलेशी का अर्थ है शैलों के राजा सुमेरु के समान निवल अवस्था । अथवा 'शोलेश एव शैलेश': - इस व्युत्पत्ति से शैलेश का अर्थ है-शील का स्वामी शीलसम्पन्न भगवान् प्रौर शैलेशी का का अर्थ है अन्य सभी शोलावस्थाओं को टक्कर मारने वाली भगवान् को शीलावस्था । शैलेशी संज्ञा उस स्थर्य का, जो निवृत्तियत्नरूप है और जिसे परमत्रीयं कहा जाता है, 'यौगिकनाम' है। यदि यह शंका को आय कि 'शैलेशी शब्द से अभिहित यह स्थिरावस्था ज्ञानयोगरूप नहीं है, अतः उसे ज्ञानयोग की पराकाष्ठा कहना श्रसङ्गत है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि शैलेशी उसीप्रकार ज्ञान की अवस्था है जैसे पाकजन्य रक्तता घट को । इस शैलेशी अवस्था में परमोत्कर्ष को प्राप्त ज्ञानयोग से ठीक उसमे ही काल में मुक्ति होती है जिसने काल में पांच हस्व अक्षरों का उच्चारण सम्पन्न होता है। शैलेश अवस्था के ज्ञान से इतने शीघ्र मुक्ति होने में कोई सन्देह नहीं है ।। २३ ।।