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________________ स्पा० ० टीका एवं हिन्दोविवेचन ] | 100 तस्य धर्मत्वादि साधयस्पष्ट धर्मस्तच्चेतिमूलम्-धर्मस्तवात्मधर्मस्वान्मुक्तिदः शुद्धिसाधनात् । अक्षयोप्रतिपातिस्वारसदा मुक्तौ तथास्थिते ॥२४॥ तव शैलेशीसंज्ञितं स्थैर्य च धर्म: आरमधर्मस्वात-आत्मस्वभावत्वाद, शुद्धज्ञानवत् । मुक्तिका निर्वाणप्रदः स च धर्मः शुद्धिसाधनात-परमनिर्जरोत्पादनात ; तथा अक्षयः= शाश्वतः अप्रतिपातिवात अनश्वरत्वात् , अनश्वरत्वं च सदा-नित्यम् मुक्ती तथास्थितेः-मुक्तस्य स्थिरभावेनावस्थानात् , स्थैर्यनिवृतावस्थैर्यस्य पुनरुन्मअनापत्तेः ॥ २४ ॥ न चैतदनार्षमित्याह चारित्रेतिमूलम्—चारित्रपरिणामस्य निवृत्तिनं च सर्वथा । सिड उक्तो यतः शास्ने 'न चारित्री न चेतरः ॥ २५ ॥ चारित्रपरिणामस्य शैलेश्यवस्थाभाविनो विशिष्टस्थैर्यस्य, निवृत्तिः नाशः नव-नैव, सर्वथा स्थैर्यरूपेणापि, किन्तु कथश्चित्कर्मापगमनस्वभावत्वेन । कथमेतदेवम् १ इत्याह-सिद्ध उक्तो यतः शास्त्रे-प्रवचने प्रज्ञापनादौ न चारित्री न चेतराम्नाप्यचारित्री सिद्ध णो धरित्ती, णो अधरित्ती" इति वचनप्रामाण्यात् ॥ २५॥ २४ घों कारिका में शैलेशी शम्ब से अभिहित स्थर्य को धर्मरूप सिद्ध किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-शैलेशी संज्ञा से ध्यवहृत स्थर्य धर्म है क्योंकि वह आत्मा का स्वभाव है, जो आत्मा का स्वभाव होता है वह धर्म होता है जैसे- शुद्धज्ञान । यह शैलेशो अवस्थारूप धर्म मोक्ष का जनक है, क्योंकि यह धर्म शुद्धि-परमनिर्जरा-संसारापादक समस्त कर्मों के क्षय, का जनक है। यह धर्म कभी सोग नहीं होता क्योंकि यह स्वरूपतः अप्रतिपातीअनश्वर है । अनश्वर होने के कारण ही यह सर्वदा अवस्थित रहता है, इसका प्रभाव नहीं होता क्योंकि मुक्तिकाल में मुक्त प्रात्मा स्थिरभाव से अवस्थित रहता है। यदि इस शैलेशी संज्ञक स्थर्य की निवृत्ति होगी तो मुक्त आत्मा क अस्थय - मोक्षावस्था से पतन को प्रापति होगी। ऐसा न हो इसीलिए इस अवस्था को अनश्वर और नित्य माना जाता ह॥ २४ ॥ पूर्व कारिका में शैलेशी अवस्था को जो अनश्वरता बतायी गई है प्रस्तुत २५वीं कारिका से उसमें अनार्षत्व को संका का निरास किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-शंलेशी अवस्था में आरमा को जो विशिष्ट स्थिरता प्राप्त होती है, उसे चारित्र का विशेष परिणाम कहा जाता है। उसका सर्वथा यानी स्थर्य रूप से भी नाश नहीं होता किन्तु कर्म निवृत्ति स्वभाव रूप से कश्चिद नाश होता है । यह कैसे सम्भव है, यह बात कारिका के उत्सराध में यह कहकर बतायी गयी है कि प्रज्ञापनासूत्रमादि शास्त्र में यह कहा गया है कि मुक्तात्मा में न चारित्र होता है और न अचारित्र १. सिद्धो नो चारित्री, नो अचारित्रः।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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