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[ शास्त्रवार्ता स्तक ६ श्लो. २६
मुक्तौ चारित्राऽनिवृत्तिमेव निदर्शनेन द्रढयितुमाहमूलम् - न चावस्थानिवृत्येह निवृत्तिस्तस्य युज्यते ।
समयातिकमे यबत् सिद्धभावस्य तन वै ॥२६॥ न गाणशानिलगा कर्मा पायाशाया निवृत्तिस्तस्य-स्थैर्यपरिणामस्य पुज्यते, इह-मुक्तो । किंवत् ? इत्याह-समयातिकमे प्रथमसमयातिक्रान्तौ यबस् यथा सिद्धभावस्य-सिद्धत्वस्य तत्र-मुक्ती, वैनिश्चितम् । यथा हि सिद्धत्वं प्रथमसमयादिनिवृत्तितया नाशशीलं द्वितीयसमयादिभावितया चोत्पत्तिशीलमपि सिद्धत्वस्वरूपेण साधनन्तमेव, सथा स्थैर्यमपि कर्मापगमनस्वमारत्वेन नश्वरमुत्तरस्वभावेन चोत्पत्तिशीलमपि स्थैर्यस्वरूपेण साधनन्तमविरुद्धमिति भावः।
होता है। इस शास्त्रवचन रूप प्रमाण से यह स्पष्ट है कि यतः मुक्ति चारित्र का ही परिणाम है और परिणाम और परिणामी में मेव नहीं होता अतः मुक्तारमा में प्रचारित्र नहीं है। चारित्र इसलिए नहीं है कि मुक्तिरूप चारित्रपरिणाम चारित्र के फल का जनक नहीं है क्योंकि मुक्ति हो चारित्र का मन्तिम फल है। उस प्रमाण से यह भी सिद्ध है कि मुक्तात्मा का स्थैर्य, स्थैर्यरूप से निवृत्त नहीं होता क्योंकि उससे और कोई फलान्तर न होने से उसको अपने स्वरूप से निवृत्ति नहीं हो सकती। कारण, किसी कार्य के जनन से ही वस्त के पर्यरूप को निति होती है, और उसी प्रमाण से यह मी सिद्ध है कि कमनिवृत्तिस्वभावस्वरूप से इसको निवृत्ति हो जाती है, क्योंकि वह कर्मनिवृत्ति अपवर्गस्वरूप मुक्ति एक भावात्मक वस्तु है और कर्मनिवृत्तिस्वभावरूप चारित्र परिणाम, अमावात्मक बस्तु है। अत: मुक्ति की भावरूपता की उपपत्ति के लिए अमावस्वभावता की निवृत्ति मानना आवश्यक है ।। २५ ॥
[मुक्ति में स्थिरतारूप की अनियत्ति ] २६वों कारिका में दृष्टान्त द्वारा इस तथ्य का दृढतापूर्वक प्रतिपादन किया गया है कि मुक्ति में बारित्र की नित्ति नहीं होतो। कारिका का अर्थ इसप्रकार है-प्रात्मा को कर्मनिवृत्ति-अवस्था की निवृत्ति होने पर भी मोक्ष में स्थैर्य परिणाम की निवृत्ति नहीं होती। यह तथ्य सिद्धत्व के दृष्टान्त से अवगत किया जा सकता है। सिद्धस्व मुरु प्रारमा का एक परिणाम है जिसके बारे में यह निश्चय है कि प्रथमसमयविशिष्ट सिद्धभाव के निचत्त हो जाने पर भी उसके अपने सिद्धस्वस्वरूप को निवृत्ति महीं होती । कहने का आशय यह है कि जिस समय सिद्धत्व का लाभ होता है, उसी समय सिद्धत्व की सामग्नी से पूर्व समय को - प्रसिद्धत्वसमय को निवृत्ति भी होती है। अतः समान समय में समान सामग्री से सम्पन्न होने के कारण सिद्धत्व और असिद्धस्य समय की नियत्ति में अभेद होता है। फलतः सिद्धत्व के दो रूप होते हैं-एक उसका अपना स्वरूप सिद्धत्व प्रौर दूसरा "प्रथमसमय = असिद्धत्व समय का निबत्तित्य" इन दोनों रूपों से अतिरिक्त भी उसका एक रूप है वह द्वितीय तृतीय आदि उत्तर समयों में अनुषसमानत्व । इन तीनों रूपों में प्रथम समय निवृत्तिस्व रूप से वह (सिद्धत्य) नश्वर होता है क्योंकि प्रथम समय, असिद्धत्व समय की निवत्ति और सिद्धव की उत्पत्ति