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स्था का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
'नन्वेवं स्थैर्यभावेन साधनन्तस्वसिद्धावपि चारित्रमावेन न तथात्वसिद्धिः । न हि स्थैर्यमेव चारित्रम् , प्राक् शैलेश्यास्तदभावात , किन्तु योगस्थैर्य तत् । तच्च करणालम्बनसत्प्रवृत्त्यऽसमिटत्यन्यसरपरिणामरूपं शैलेश्यामपि स्वरूपसत्करणे काये स्थित्त्वैव सूचमकाययोगनिरोधात् परमचारित्रोपपत्तिा, सिद्भिगमनसमये च शरीरत्यागात् तदालम्बनचारित्रस्वभावापगमः, दंडापगमे तदालम्बनदंडित्वस्वभावापगमवदुपपत्तेः । द्रव्यरूपेणाऽन्वयं तु न वारयामः। न चैवं योगपरिणामरूपत्वात् केरलिनचारित्रस्यौदायकत्वं स्यात् , लेश्यावदिति वाच्यम् , नामकर्मोदयसध्यपेक्षत्वेऽपि तस्य मोहक्षयप्रधानहेतुकत्वेन क्षायिकत्वेनैव व्यपदेशात् , इन्द्रियपर्याप्त्युदयजन्येऽपीन्द्रिये प्रधानक्षयोपशमहेतुकारवेन क्षायोपशमिकत्वेनैव व्यपदेशवत । अत एव न कर्मकृतभावत्वेन तस्य धमत्वानुपपत्तिः, क्षायिकत्वेन तदुपपत्तेः । नचैवं स्वरूपत आश्रवत्वमप्यस्य शकुनीयम् , योगस्य तथास्वेऽपि योगनिर्गतपरिणामरूपस्य तस्याऽतथात्वात् । के समय से अभिन्न है । अत: उस समय के निवृत्त होने से, उससे अभिन्न प्रसिद्धत्वसमयनिवृत्ति को भी निवृत्ति होना न्यायप्राप्त है। वित्तीय प्रावि समयों में अनुवर्तमानस्वरूप से सिद्धत्व उत्पत्तिशील होता है और अपने सिसत्यरूप से सावि एवं अनन्स होतात सिहस्व की इस स्थिति के समान ही मुक्त आस्मा के स्थर्यपरिणाम की भी स्थिति है। क्योंकि वह भी कर्मापगमत्व=कर्मनिवृत्ति स्वभाव से नश्वर, उत्तर समय में अनुवर्तमानस्य स्वमाव से उत्पत्तिशील और स्पैर्यत्व रूप से साबि और अनन्त है । स्थर्य को सादि और अनन्त कहने का आशय यह है कि मोक्षकाल में आत्मा का स्पैयं उत्पन होता है, और उत्तर काल में सदा अनुवर्तमान होने से उसका अन्त नहीं होता ।
[मोक्ष में चारित्र का असंभव-एकनयमत ] यदि यह कहा जाय कि
"स्थर्य रूप से स्थर्य में सावित्व और अनन्तत्व की सिद्धि होने पर चारित्रत्यरूप से सादिअनन्तत्व की सिद्धि न होने से मोक्ष में चारित्र की अनियति नहीं सिब हो सकती । स्पर्य ही चारित्र नहीं है, क्योंकि शंलेशी के पूर्व स्थर्य नहीं होता; किन्तु योगस्थय चारित्र है। योगस्थर्य का अर्थ है योग,-अर्थात् काय, वाणी और मनरूप करणों द्वारा सत्कार्यों में प्रवृति अथवा असत्कार्यों से निवृत्तिरूप मारमा,-का परिणाम, शैलेशी अवस्था में योग द्वारा सत्कार्यप्रवृत्ति यद्यपि नहीं होती, पर असत्कार्यनिवृत्ति होती है। अतः शैलेशो अवस्था में उक्त अन्यतर परिणाम रूप योगस्पैर्य विद्य. मान है। क्योंकि स्वरूपसत जो करण काया उस में स्थित होकर ही सूक्ष्मकाय का निरोष होने से परमचारित्र की सिद्धि होती है। किन्तु मुक्तारमा जब सिद्धिक्षेत्र को यात्रा प्रारम्भ करता है, तब वर्तमान शरीर का त्याग होने से उसके द्वारा सम्पन्न होने वाले स्थर्यपरिणामरूप चारित्र स्वभाष १. इतः 'सिद्धानां चारित्रं कथं सुश्रद्धानम्' ? (पृ. १२३ ) इत्यन्तः सिद्धाऽचारित्रवादिपक्षः । क यह चर्चा बहुत ही लम्बी है । एकनयमत का निरूपण भी सुविस्तृत है । वाचकवर्ग बराबर ध्यान से पढेगे तभी समझ सकेंगे।
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