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________________ ११२ ] (शास्त्रवास्तिक ६ ग्लो. २६ अपि च, प्राक्तनं चारित्रमेवोत्कृष्यमाणं शायोपशमिकादिभावं परित्यज्य क्षायिकमावेन परिणमते, न तु निर्मलीभवस्वामिय प्रागवस्थितस्वरूपात प्रच्यवते. संज्ञान्तरोपनिबन्धस्य तत्त्यागाऽनियतत्वात् । प्राक्तनं च तद् मूलगुणविषययोगस्थैर्यमेव शुभवीर्यरूपं दृष्टम् , वज्रस्थानीयस्य तस्य ज्वलनजनितोपतापरूपोत्तरगुणाऽस्थिरभावमूर्तिकातिचारादिना भङ्गाऽयोगात ; इस्थमेव चक्रजडानां चण्डानां च चण्डरूद्रप्रभृतीनां तदुपपत्ते न तु शुद्धोपयोगरूपम् आत्मस्थैर्यरूपं वा, तदोक्तातिरिक्तसदसिद्धेः, उपयोगरूपत्वे चारित्रस्य जिनानामुपयोगत्रयादिप्रसरत्या व्यवस्थाविप्लवाच । शुभवीयरूपं च तत् करणनिमित्तकप्रवाहपतितपरिणामरूपत्वाद् निमित्तेन सहैव नश्यति । को निवृत्ति ठीक उसीप्रकार होती है, जैसे दण्ड का अभाव होने पर दण्डमूलक दण्डिरवस्वभाव की निवृत्ति होती है। हो, यह मान सकते हैं कि उत्तरोत्तरकाल में पूर्वपूर्वकालसापेक्षस्वभाव की ही निवृत्ति होती है, उसके द्रध्यस्वरूप की निवृत्ति नहीं होती। अतः वृध्यस्वरूप से चारित्र का सम्बन्ध भावी सम्पूर्ण समय में बना रहे तो उसका हम इनकार नहीं करते। पवि इस पर कहा जाय कि-'केवली का चारित्र मदि योगपरिणामरूप होगा तो 'लेश्या के समाम औवयिक हो जायगा -तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'इन्द्रियपर्याप्ति नामकर्म के उदय से जम्म होने पर भी प्रधानतया ज्ञानावरण के क्षयोपशम से जन्म होने के कारण जसे इन्द्रिय को "मायोपशमिकही कहा जाता है, वैसे ही केवली का चारित्र भी कम के उदय से जन्म होने पर भी प्रधानतया मोहक्षय से जन्य होने के कारण क्षायिक ही कहा जाना उचित है । प्रधान हेतु के अनुसार कार्य व्यवहार के औचित्य के कारण ही केवली के चारित्र को कर्मजन्यभाष के रूप में उसका धर्म न मानकर कर्मक्षयजन्यमावरूप में हो उसका धर्म माना जाता है। 'योगपरिणामरूप होने से केवली पारित्र में आश्रवरूपता' की भी शंका नहीं की जा सकती, क्योंकि योग के माधवरूप होने पर भी केवली का चारित्र योगवारक मात्मपरिणामरूप होने से वह मानवरूप नहीं हो सकता। [चायोपशमिक चारित्र का क्षायिकभाव में रूपान्तर ] इस सन्दर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि मो चारित्र पहले रहता है वही अब उत्कर्ष को प्राप्त करने लगता है तब क्षायोपशमिकमावि भाव का त्याग करके क्षायिकभाष से परिणत हो जाता है। धोने के बाव शुद्ध होने वाले वस्त्र के समान अपने पूर्वरूप से वह च्युत नहीं होता। क्षायिक' इस नई संझा १. लेश्या-जीव के शुभाशुभाध्यवसाय को लेश्या कहते हैं-उसके छ प्रकार हैं। २. औदयिक-कर्म के उदय से प्रगट होने वाले भावों को औदयिक कहते हैं। ३. इन्द्रियपर्याप्ति नाम कर्म-इन्द्रिययोग्य पुद्गलों को इन्द्रियरूप से परिणत करने की शक्ति का संपादक कर्म ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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