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________________ मा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ ११३ I न चैवं केवलज्ञानस्यापि शरीरनिमित्तकत्वात् तत्राशेन सह नाशप्रसङ्गः तथा च जैनमतस्य बाह्यमतादविशेषः स्यादिति शङ्कनीयम्, तत्रापेक्षामात्रेण शरीरस्य हेतुत्वेऽप्यालम्बनतयाऽहेतुत्वात् । हृष्यते हिं काययोगनिरोधाख्यकायव्यापारोत्कर्मप्रयुक्तोत्कर्षभागित्वं चारित्रे केलिन न तु ज्ञान इति । 'निरोधो न कायव्यापार' इति चेत् ? न, संयोगादिवत् तस्य दूव्याभयत्वात् ; अन्यथा 'कायस्य निरोधः' इति संबन्धाऽयोगात् । ' चायिकत्वे कथं चारित्रस्यो - तरकालं हेत्वन्तरापेक्ष उत्कर्षः ९' इति चेत् ? उदमुभय समाधेयम् । 'मोहक्षयाद् दोषापगमेन स्वरूपशुद्धितारतम्य विश्रान्तावपि परमनिर्जरारूपफले योगानां प्रतिबन्धकत्वात् तदपगमलक्षणोस्कर्षो व्यवहाराद् न विरुध्यते निश्चयतस्तु ऋते कालाद् न तत्रान्यप्रतिबन्धः तत्प्रतिबन्धश्च तच्चतोऽप्रतिबन्धः तथापरिणामोपयोगित्वात् तस्येति न विरोध' इति चेत् १ इदमप्युभयमते तुल्यम् । तस्माज्ज्ञानाऽनाशेऽपि शरीरेण सह चारित्रनाशोऽवश्यमभ्युपेयः । को प्राप्त करने के कारण उसके पूर्वरूप के स्थान को कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि पूर्वसंज्ञा से भिन्न संज्ञा की प्राप्ति में पूर्वरूप के त्याग का कोई नियम नहीं है। पूर्वकाल का चारित्र 'मूलगुण के विषय में योगरूप है जिसे शुभवरूप माना गया है। यह वारित्र वज्रा के समान दय होता है अतः जैसे आग के ताप से वज्र का गलन नहीं होता मात्र तपन हो होता है वैसे उत्तरगुण के सम्बन्ध में योग की अस्थिरताप अतिचार (दोष) आदि होता है किन्तु चारित्र का भङ्ग नहीं होता। अतिचार अदि से प्राक्तन चारित्र का मङ्गन होने से हो 'दक जड और चण्ड ( उग्रकोपनशील स्वभाववाले आचार्य चण्डरुद्र आदि में मो चारित्र को उपपत्ति होती है। पूर्वकालीनचारित्र शुद्ध उपयोगरूप अथवा आत्मरूप नहीं होता क्योंकि पूर्वकाल में मूलगुणविषयक योगस्वयं से अतिरिक्त चारित्र का अस्तित्व असिद्ध है और दूसरा कारण यह है कि यदि पूर्वकालीन चारित्र को उपयोगरूप माना जायगा सो जिनभाष ईश्वरभाव को प्राप्त पुरुषों में ज्ञान दर्शन और चारित्र के तीन उपयोग भावि की आपति होने से प्रवस्थाभेद से उपयोगमेव की व्यवस्था का लोप हो जायगा । शुभवोर्यरूपचारित्र यतः मनवचन कायरूप करणमूलकपरिणाम प्रवाह अन्तर्गत एक परिणाम होता है अतः कायादि करणरूप निमित का नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है। (प्रतः मुक्ति में चारित्र नहीं हो सकता । ) [ शरीरपात के साथ ज्ञानविनाश- आप िका परिहार ] aft यह शंका की जाय कि जैसे चारित्र कायाधिकरणमूलक होने से कायादि का नाश होने १. मूलगुणविषय योगस्थैर्य - ऐसा योगस्थैर्य जिससे पाँच महाव्रतस्वरूप मूलगुण सुरक्षित रहते हैं । २. उत्तरगुणविषययोगस्थर्यरूप अतिचार- अतिचार यानी दोष, योगों में अल्पांश अस्थिरता होने पर पशुद्धि आदि उत्तरगुणों में जो क्षति आती है वह अतिचाररूप है। ३. वक्रजड-जो लोग अल्पज्ञ होने पर भी ज्ञानीजन के उपदेश का सरल हृदय से स्वीकार नहीं करते उन्हें जड़ और वक्र कहते हैं । ४. चण्डरुद्र - एक जैन आचार्य जिसे बात बात में बहुत ही गुस्सा आ जाता था ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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