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________________ [ ६ स्था. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] "तस्माद् यत् स्मर्थते तत् स्यात् सादृश्येन विशेषितम् । प्रमेयमुपमानस्य सादृश्यं वा तदन्वितम् ॥१॥" [०वा०] इत्युपमानमतिरिच्यतामिति चेत् । न एवं सति 'गवयो गोवधर्मा' इति ज्ञानस्यापि 'गौर्गवयविधर्मा' इति ज्ञानजनकस्य मानान्तरत्वप्रसङ्गात् । यदि च गवये गोप्रतियोगिकवैधर्म्यज्ञाने गवि गवयनिष्ठवैधयंप्रतियोगित्वेन ज्ञानेन गवयप्रतियोगिक वैधर्म्यमनुमीयते तदा तुल्यम्, प्रकृतेऽपि गवयनिष्ठसादृश्यप्रतियोगित्वेन गवयप्रतियोगिकसादृश्यानुमानात्' इत्याहुः | तद्गतभृयोधर्मरूप तत्सादृश्य का तद्माहकप्रत्यक्षादिप्रमाण द्वारा ग्रहण संभव होने से उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की आवश्यकता नहीं है । [ उपमान स्वतंत्र प्रमाण है--मीमांसक ] वैशेषिक की उक्त मान्यता के विरुद्ध उपमानप्रमाणवादी मीमांसक आदि का कहना यह हैं कि पुरोयर्ती प्रत्ययोग्यद्रव्य में उक्त रीति से प्रत्यक्षप्रमाण द्वारा सादृश्य का ग्रहण संभव होने पर भी दूरस्थ द्रश्य में पुरोवर्ती द्रव्य के साहश्य का ग्रहण प्रत्यक्षप्रमाण आदि से संभव नहीं हो सकता । जैसे, अरण्यस्थ पुरुष के शब्द से गवय में गोसादृश्य का ज्ञान होने के अनन्तर अरण्य में गये ग्रामीण पुरुष को गवय का दर्शन होने पर मेरी गौ इस के सहश है इस प्रकार दूरस्थ गौ में सम्मुखवर्ती गवय के सादृश्य का ज्ञान होता है। यह ज्ञान प्रत्यक्षआदि से विलक्षणप्रारूप है जिसे उपमिति कहा जाता है, जो अरण्यस्थ पुरुष के वाक्य द्वारा बोधित 'गय में गो सादृश्य' के स्मरण से उत्पन्न होती है। अथवा जिसे अरण्यवासी पुरुष के द्वारा गय में गोसाश्य का बोध नहीं हुआ है उसे भी अरण्य में नेत्र के सम्मुख गमय उपस्थित होने पर प्रत्यक्षप्रमाण से गवय में गोसादृश्यज्ञान होने के अनन्तर अपनी ग्रामस्थ गौ में गय सादृश्य का ज्ञान होता है। उस का यह ज्ञान भी प्रत्यक्षादि से विलक्षण प्रमा है जिस का जन्म गयय में गोसाइयज्ञान से होता है। अतः उस ज्ञान के कारणभूत गययनिष्ठ गोसादृश्य ज्ञान को उपमाननामक अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है, क्योंकि अरण्यगत पुरुष को दूर ग्राम में स्थित गौ में गवयसादृश्य का जो ज्ञान होता है उसे प्रत्यक्ष प्रमा में समाविष्ट नहीं किया जा सकता क्योंकि उस ज्ञान के विशेष्यभूत गौ के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष नहीं है । उस ज्ञान को स्मृति में भी समाविष्ट नहीं किया जा सकता, क्योंकि उस का विशेष्यभृत गौरूप विषय यद्यपि पूर्वानुभूत है किन्तु गवयसादृश्यरूप विशेषण पूर्वानुभृत न होने से गवयसादृश्य विशिष्ट गो पूर्वानुभूत नहीं है, और उत्तज्ञान इस पूर्वाननुभूत विशिष्ट को ग्रहण करता है अतः व स्मृतिरूप नहीं हो सकता क्योंकि स्मृति अननुभूतविश्यक नहीं होती। कहा भी गया है कि किसी सहा वस्तु का दर्शन होने पर जिस पदार्थ का स्मरण होता है- दृश्यमान पदार्थ के सादृश्य से विशिष्ट उस पदार्थ का अथवा उस पदार्थ से विशिष्ट दृश्यमान पदार्थ का साहश्य, उपमानप्रमाण का प्रमेय है, क्योंकि गोसदृश गवय का दर्शन होने पर गौ गघयसदृशः ' अथवा ' गरि गवयसाध्यम्' इस प्रकार की प्रमा का उदय आनुमानिक है। अतः इस विलक्षणप्रभा के लिये उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण को मानना आवश्यक है । [ वैधर्म्यग्राहक स्वतंत्र प्रमाण की आपत्ति | किन्तु वैशेषिकों की दृष्टि में मीमांसक का उक्त कथन संगत नहीं है क्योंकि ' गवयः गोसरश: ' इस ज्ञान को यदि 'मौः गवयसदृशः ' इस ज्ञान का जनक अतिरिक्तप्रमाण माना
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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