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________________ ६६] (शासधासा० स० १० १६ ___ अत्र वैशेषिकादयः-'नोपमानमतिरिच्यते विषयाभावात् । न च सादृश्यं विषयः, तद्धि नातिरिक्तम् , तद्यञ्जकत्वाभिमतस्य तदन्यत्वे सति तर्मयत्त्वादेरेव तत्त्वात् । तच्च स्वघटफभेदप्रतियोगिज्ञानसहकृतेन्द्रियग्राह्यम् । एतेन 'इन्द्रियसंनिकर्षमात्रात् तदग्रहेण लिङ्गाद्यप्रतिसंधानेऽपि च ग्रहणे तस्यानतिरिक्तत्वेऽपि ग्राहकान्तरमावश्यकम्' इत्यपास्तम् । ननु तथापि गवये गोप्रतियो. गिकसादृश्यज्ञानकरणकं गवि गवयपतियोगिकसादृश्यज्ञानमुपमितिरस्तु । न ह्येतत् प्रत्यक्षम् , विशेप्यस्य गोरसंनिकर्षात् । नापि स्मृतिः, अननुभूतविषयकत्वात्, गोरनुभवेऽपि विशिष्टस्याननुभवात् । तदुक्तम् [उपमान स्वतंत्र प्रमाण नहीं है-बैशेषिक] वैशेषिक आदि कतिपय दर्शनों का मत है कि उपमान यह अतिरिक्त प्रमाण नहीं है क्योंकि उस का कोई अतिरिक्त विषय नहीं है। कहने का आशय यह है कि किसी नवीन प्रमाण की सिद्धि तभी होती है जब उस का कोई ऐसा नवीन विषय हो जिस का ग्रहण फ्लप्त (तक्ष्न्य प्रसिद्ध) प्रमाणों से न हो सकता हो। यतः बलप्त प्रमाणों से ग्रहण न होने योग्य कोई नथीम विषय नहीं है अत: उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना निराधार है। यदि यह कहा जाय कि-'सारश्य एक ऐमा अतिरित निय है कि कर पाने मान आदि से नहीं होता अत: उस के ग्रहण के लिये उपमानप्रमाण मानना उचित है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि साश्य अतिरिक्त पदार्थ नहीं है किन्तु सादृश्य को अतिरिक्त पदार्थ माननेवाले जिसे सारश्य का व्यञ्जक मानने है.सारश्य उस से भिन्न नहीं है, किन्तु वही सादृश्य है। जैसे, जो जिस से भिन्न होता है और जिस के बहुतर धर्म का या विशेष धर्म का आश्रय होता है उप्त में उस के सादृश्य की प्रतीति होती है। जैसे, किसी सुन्दर नारी का मुख चन्द्रमा से भिन्न और चन्द्रमा के आह्लादकत्व धर्म का आश्रय होने से चन्द्रसशरूप में गृहीत होता है। मारश्य को अतिरिक्त पदार्थ मानने वाले लोग नारी-मुम्न में सात होनेवाले चन्द्रमादृश्य को चन्द्रभिन्नत्वविशिष्ट चन्द्रगत आहरूादकत्व से व्य काय मानते हैं, किन्तु वैशेषिक का कहना यह है कि चन्द्रभिन्नत्वसहित चन्द्रगत आहलादकत्व यही नारी मुख में चन्द्रमा का सादृश्य है। उस से भिन्न सादृश्य की कल्पना नियुक्तिक पचं गौरक्यस्त है। और जब उक्त धर्म ही सारश्य है तो उस का ग्रहण उस की कुक्षि में प्रषिष्ट भेद के प्रतियोगी चन्द्रमा के ज्ञान से महकृत इन्द्रिय से ही हो सकता है, अतः उस के ग्रहण के लिये उपमाननामक अतिरिक्त प्रमाण का अभ्युपगम अनावश्यक है। इसीलिये यह कथन भी निरस्त हो जाता है कि-"इन्द्रियसन्निकर्ष मात्र से सादृश्य का ग्रहण नहीं होता एवं लिङ्ग आदि का ज्ञान न होने पर भी सारश्य का ग्रहण होता है अतः साश्य को अतिरिक्त पदार्थ न मानने पर भी उस के ग्राहक अन्य प्रमाण का अभ्युपगम आवश्यक है, क्योंकि सादृश्य की कुक्षि में प्रविष्ट भेद के प्रतियोगिभूत उपमान का शान रहने पर इन्द्रिय से उस का अहण हो सकता है। क्योंकि यह कैसे कहा आ सकता है कि नारी के आह्वादकमुस के साथ नेत्र का सन्निकर्ष होने पर यदि चन्द्रमा की स्मृति हो जाती है तो भी नेत्र से ही यह ज्ञान नहीं होता कि यह नारीमुख चन्द्रमा से भिन्न होते हुये भी चन्द्रदर्शन से होनेवाले आहाद को उत्पन्न करता है?! अतः तद्भिवस्वसहित
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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