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________________ ६८] [शखवार्ताः स्त० १०/१६ नैयायिकास्तु-'कीग् गवयः ?' इति प्रभ गोसदृशो गवयः' इत्युत्तरवाक्ये श्रुते, वने पर्यटतस्तत्सदृशपिण्डदर्शनान्तरं तत्र गवयपदशक्तिपरिच्छेद उपमानफलम् , इन्द्रिय-लिङ्ग-शब्दासाध्यत्वात् । न च 'गोसदृशो गवयः' इति वाक्यादेव गोसादृश्यविशिष्टे शक्तिमहः, 'गोसदृशो गवयपदवाच्यः, असति वृत्त्यन्तरे वृद्धस्तत्र प्रयुज्यमानत्वात्' इत्यनुमानाद् वेति शङ्कनीयम् ; गौरवात् , तवज्ञानेऽपि व्यवहारादिना गवयत्वविशिष्ट शक्तिग्रहेण गवयपदप्रयोगाच्च गोसादृश्यस्य गवयपदाऽप्रवृत्तिनिमित्तत्वात् , गवयत्वस्य ताशस्य प्रागप्रतीतेः, शब्दादनुमानाद वा तेन रूपेण शक्त्यग्रहात् । न च गययत्यप्रत्यक्षानन्तरं 'गोसदृशो गवः' इति वाक्याल्लक्षणया गवयत्वविशिष्टे शक्तिग्रह इति वाच्यम् जायगा तो गयो गोधिधर्मा' इस ज्ञान को भी ‘गौः गययविधर्मा' इस शान का जनक एक और अतिग्नि प्रमाण मानना पड़ेगा। यदि इस के उत्तर में मीमांसक की ओर से यह कहा जाय कि-' गषय में गो के वैधम्य का ज्ञान होने पर गौ में गवयनिष्ठ वैधर्म्य के प्रतियोगित्व का ज्ञान हो जाता है। अतः उस प्रतियोगित्म से गो में गवयवधार्य की अनुमिति होती है, इसलिये गौ में गवयंवैधर्म्यज्ञान का अनुमिति में अन्तर्भाव हो जाने से उस के लिये पृथक् प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती तो यह बात गो में गवयसाय शाल के समय में भी सही जा सकती है। जैसे यह कहा जा सकता है कि गवय में गोसारश्य का ज्ञान होने पर गौ में गत्रयनिष्ठसादृश्य के प्रतियोगित्व का ज्ञान हो जाता है और उस प्रतियोगित्व से गो में गवयसारश्य की अनुमिति हो सकती है अतः गो में गवयसारश्यज्ञान का अनुमिति में अन्तर्भाव हो जाने से उस के लिये उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना नियुक्तिक है। ['गवय पद का शक्तिज्ञान उपमान का फल-नैयायिक ] नैयायिकों का कहना है कि गयरूप पशुविशेष में गययपद की शक्ति के शापनार्थ उपमाननामक अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है। उन का आशय यह है कि जब कोई ग्रामीण - ग्रामवासी मनुष्य गाँव में आये हुये किमी अरण्यवामी व्यक्ति से गवय की चर्चा मुन कर पूछता है कि गवय कैसा होता है ? किस प्रकार के पशु को गवय कहा जाता है ?' तव अरण्यबासी व्यक्ति से बताता है कि गश्य गोसदृश होता है, गोसदृश पशु को गयय कहा जाता है । अरण्यवासी पुरुष के वाक्य से गयय की जानकारी प्राप्त कर ग्रामवासी पुरुष जब कभी अरण्य में जाने पर गौसदृश पशु को देखता है तब उसे अरण्यवासी पुरुप के वाक्यार्थ का स्मरण होने से उसे 'गोसदृशोऽयं गधयः गोसटश यह पशु गत्रय पद का वाच्य है। इस की प्रमा उत्पन्न होती है। यह प्रमा गोसदृश पश में गवयपद की शक्ति को विषय करती है और यह इन्द्रिय, लिङ्ग अथवा शब्द से नहीं उत्पन्न होती किन्तु गोसदृश पशु के दर्शन से उत्पन्न होती है अत: इसे गोसादृश्यशानरूप कारण से ही उत्पन्न मानना आवश्यक है। फलतः सादृश्यशान इस प्रमा का करण होता है। वह प्रत्यक्षादि प्रमाणों में अन्तर्मन नहीं होता. अत एव उस्ने स्वतन्त्र प्रमाण मानना और गोस्वरूप उपमान को विषय करने से उपमान शब्द से व्यघहत करना न्यायप्राप्त है। [वाक्य या अनुमान से शक्तिग्रह का असंभव ] यदि यह कहा जाय कि-"प्रामवासी पुरुष अब गांव में आये अरण्यवासी पुरुष के 'गोसदृशो गघयः' इस वाक्य को सुनता है तब उसे उसी समय उस घाक्य से ही गोसारश्य
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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