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स्या, क. टीका-हिन्दीधिवेचन ] विशिष्ट में गययपद की शक्ति की प्रमा हो जाती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि गोसहश पशु में अरपयवामी पुरुष द्वारा किये गए गयय पद के व्यवहार की जानकारी होने पर ग्रामवासी पुरुष को यह अनुमान होता है हि गोगा 'गाम -
दहा नोना । क्योंकि, लक्षणारूप अन्य वृत्ति के बिना भी वृद्ध पुरुषों के द्वारा गधयपद से व्यवहृत होता है । जो अर्थ लक्षणा के बिना भी वृद्ध पुरुषों द्वारा जिस पद से व्यवहत होता है यह उस शब्द से वाच्य होता है; जसे बट शब्द से वाच्य घट आदि रूप अर्थ ।" इस प्रकार के अनुमान प्रमाण से ग्रामवासी पुरुष को गोसदृश पशु में गवय पद का शक्तिग्रह हो जाता है। अतः गचयपद के शक्तिहरूप प्रयोजन के अनुरोध से प्रमाणान्तर की कल्पना नहीं हो सकती -तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि अरण्यवासी पुरुष के उक्त वाक्य से अथवा उक्त अनुमान से गोसादृश्यविशिष्ट में हो गवय' पद का शक्तियह हो सकता है, गवयत्वविशिष्ट में गवयपद का शक्तिग्रह नहीं हो सकता, क्योंकि ग्रामवासी पुरुप को उस समय गययत्वविशिष्ट का ज्ञान ही नहीं होता । अत: उन शाक्य अथवा उत्त अनुमान से गवयपद का शकिग्रह मानने पर गोसादृश्य को 'गवय' पद का शक्यतावच्छेदक मानना आवश्यक होने के कारण गौग्त्र होगा!
[अन्योन्याश्रय दोप का निरसन ] यदि यह कहा जाय कि- गवयत्यविशिष्ट में ययपद का शक्तिग्रह सिद्ध होने पर ही उस के उपपादनार्थ उपमानप्रमाण की कल्पना हो सकती है और उपमान प्रमाण से ही गवयन विशिष्ट में गत्रय पद का शक्तिग्रह हो सकता है । फलत: गत्रयत्वविशिष्ट में गययपद की शक्ति का अभ्युपगम अन्योन्याश्रय दोष से ग्रस्त होने के कारण स्वीकार्य नहीं हो सकता। इसलिये गौरव होने पर भी गोसादृश्य विशिष्ट में ही गवयपद की शक्ति मानना उमित है और उसका भान उक्तवाक्य एवं उक्त अनुमान से मभव होने के कारण उपमान प्रमाण की कल्पना अमंगल है' -तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अरण्यवामी पुरुषों को अरण्य में गोसादृश्य अज्ञात होने पर भी व्यवहार द्वारा गश्यत्वविशिय में गत्रयपद का शनिग्रह होता है अत एव ग्रामघामी पुरुष को भी गययत्वविशिष्ट में ही गवयपद या शनिग्रह मानना उचित है। और यह शक्तिशान ग्रामवासी पुरुष को गवय-दर्शन के पूर्व नहीं हो सकता। अतः यदि उस अरण्यवामी पुरुष के उक्त वाक्य मे अथवा उक्त अनुमान से गोसादृश्यविशिष्ट में गवयपद का शक्तियह हो भी जाता है तो भी जब यह अरण्य में जाने पर गयय को प्रत्यक्ष देखता है तब उसे अरण्यवासी पुरुष के पूर्वश्वत वाक्यार्थ का स्मरण होकर गधयत्वविशिष्ट में गवयपद का शनिग्रह होता है, और ज़म के फलस्वरूप प्राम में रहते समय उत्पन्न गोमादृश्य विशिष्ट में गत्रय पद के शनिग्रह में अप्रामाण्य ज्ञान हो जाता है । फलतः ग्रामवासी पुरुप भी इस निष्कर्ष पर पहुंचता है कि गत्रयत्वधिशिष्ट ही नवयपद का वाच्य है, किन्तु यह निफर्प उपमानप्रमाण के बिना संभव नहीं है। क्योंकि ग्रामवामी पुरुष को अरण्य में गवयदर्शन होने पर जो गघयत्वविशिष्ट में गवय पद का शक्तिग्रह होता है वह प्रत्यक्ष, अनुमान या शब्दप्रमाण से नहीं होता। किन्तु अरण्यवासी पुरुष के पूर्वश्रुत वाक्यार्थ के स्मरण द्वारा सम्मुख (पुरोवर्ती) पशु में गोसादृश्य के दर्शन से होता है । अत: उक्त दर्शन ही कथित रीति से उपमान प्रमाणरूप में सिद्ध होता है।
यदि यह कहा जाय कि-" ग्रामघासी पुरुष को अरण्य में जब गवय का दर्शन होता है तब अगायचासी पुरुष के पूर्वश्रुतवाक्य के अर्थ का ही स्मरण नहीं होता किन्तु उम के गोसहशो गत्रयः' इस याक्य का भी स्मरण होता है। अत: गोमश शद की गवयत्वविशिष्ट में लक्षणा