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[ शास्त्रवार्ता स्स० ६ श्लो०७
। किञ्च, सर्वमुक्तिसत्त्वेऽपि परस्य कथै पारित्रज्यादौ प्रवृत्तिः, स्वप्रयत्नं विनैव महाप्रलये भर्गप्रयत्नात् तदुपपत्तिसंभवात् ? ! शीघ्रमुक्त्ययं तत्प्रवृत्तौ चाऽकामेनापि पा रसायो गताः वच्छेदकं किश्चिद् वक्तव्यम् , तदेव चास्माकमपुनर्बन्धकत्वम् । अथात्मनैव मुक्ती स्वरूपयोम्यता, ईश्वरे विशेषसामग्र्यमावाश्च नातिप्रसङ्गः, शीघ्र मुक्तिहेतूपनिपाताच्च शीघ्रमुक्तिरिति शीघ्रमुक्तिस्वस्यार्थसिद्धत्वाद् न तत्स्वरूपयोग्यतावच्छेदकं किश्चित् कल्पनीयमिति न दोष इति चेत् ? न, उपादानस्वभावाऽविशेषेऽर्थसिद्धस्याप्युपादेयविशेषस्यानुपपत्तेः, अतिप्रसङ्गात् , 'कस्यचित् कदाचिदेव पारिव्रज्यादी प्रवृत्तिः" इति नियमस्य हेतुविशेष बिनाऽनिर्वाहाद ; 'अदृष्टविशेषस्तद्धेतुः' इत्युपगमेऽपि नामान्तरेणाऽपुनर्वन्धकत्वाङ्गीकारादिति सर्व मतदातम् ।। ७ 11 के लक्षण एवं अपुनर्बन्धकत्व के लिङ्गों से अपुनबंधकरवरूपयोग्यता का निश्चय हो जाता है अतः मोक्षोपाय के अनुष्ठान में प्रवृत्ति की अनुपपत्तिरूप दोष नहीं हो सकता। अगर कहें 'अनुपबन्धकता से नियत मघव्यवधान का ज्ञान होगा और वह प्रवृत्ति में प्रतिबन्धक होगी' तो यह ठीक नहीं, क्योंकि मोक्षोपाय के अनुष्ठान की प्रवृत्ति का यह प्रतिबन्धक नहीं होता, प्रत्युत उक्त मस्थिति के हेतुभूत पापकर्म सत्प्रवृत्ति से नाश्य होने के कारण नाश्य निश्चयों के विषय रूप होने से नाशार्यो की प्रवृत्ति के अनुकूल होता है। कहने का आशय यह है कि जिस पुरुष में उत्कृष्ट स्थिति का पुनर्बन्ध न करने की योग्यता होती है उसको भवस्थिति जिन दुरितों से तस्वस्थ रह सकती है वे दुरित उस पुरुष की सत्प्रवृत्ति से नाश्य होते हैं, प्रत: उनके नाश के लिये पुरुष को जो प्रवृत्ति अपेक्षित है उसमें उन रितों का निश्चय अनुकल है, क्योंकि नाश्य का निश्चय नाशार्थ प्रवृत्ति का कारण होता है । अत: उक्त योग्यतासम्पन्न पुरुष को यदि यह ज्ञान हो कि यह भवस्थिति के हेतु भूत दुरितों से भरा हुमा है तो मह ज्ञान उसकी मोक्षफल प्रवृत्ति में प्रतिबन्धक नहीं, अपितु साधक ही है। दूसरी बात यह है कि मोक्षोपायानुष्ठान में प्रति होने के पूर्व अतिशययुक्त शम आदि का अस्तित्व नहीं होता किन्तु अप्तिशय शून्य सामान्य शम प्रावि का अस्तित्व होता ही है । अत: उससे मोक्ष के उपाय जो अतिशययुक्त शम आधि, उनकी सिद्धि के लिये प्रवृत्ति हो सकती है और उस प्रवृत्ति के बाब अतिशययुक्त मोक्षोपयोगो शम आदि का सम्पादन हो सकता है। अतः सामान्य शम आदि और उससे साध्य प्रवृत्ति में परस्परापेक्षा न होने से अन्योन्याश्रयदोष नहीं हो सकता।
इस सन्दर्भ में गोशोपाध्याय का कहना है कि-'जीव संसारी होने से ही शम आदि के स्वरूपयोग्य होता है। संसारी होने से ही उसे मोक्ष के लिये भी स्वरूपयोग्य मानना उचित है । इसलिये यह जैनमत समीचीन नहीं हो सकता कि संसारी सभी जीव मुक्ति के योग्य नहीं होते।'-किन्तु व्याख्याकार कहते हैं कि यह संगत नहीं है क्योंकि नित्यज्ञानाविद्भिन्नत्यात्मक संसारिस्वरूप से जीव को मोक्ष के लिये स्वरूपयोग्य मानने को अपेक्षा लघुभूत भव्यत्य जाति से मोक्ष के लिये स्वरूपयोग्य मानने में लाधव है। दूसरी बात यह है कि सर्वमुक्ति का युक्तिपूर्वक निरास कर दिया गया है अतः सर्वजीयसाधारणसंसारित्वरूप से मोक्षस्वरूपयोग्यता का अभ्युपगम संगत नहीं हो सकता।
[सर्वजीवों को मुक्तियोग्य मानन में आपनि ] दूसरा दोष यह है कि यदि समस्त जीवों की मुक्ति मानी जायगी तो संन्यास आदि में प्रवृत्ति