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स्या० का टीका एवं हिन्दीविवेचन ]
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दर्शनावाप्तौ यत् स्यात् तदाहमूलम्-सति चास्मिन्नसौ धन्यः सम्यग्दर्शनसंयुप्तः ।
सत्यमगतामा मह सोचौ ॥८॥ सति चास्मिन्-दर्शने, असौ-तथाभब्यत्वभाजनं जनः, धन्यः लब्धचिन्तामणिदरिद्रवद् निष्ठितार्थत्वात् , सम्यग्दर्शनसंयुतः फलपर्यन्तहेयोपादेयविवेकवान, प्रतिज्ञातप्रवृष्यनिर्वहणे हि न सम्यक्त्वमिति समयविदः । तत्वषडानेन-श्रवणेच्छारूपसु'षोत्तरश्रोत्रोपयोगरूप'श्रवणोत्तरशास्त्रार्थमात्रोपादानरूप ग्रहणोत्तराऽविस्मरण रूपधारणोत्तरमोह-संदेह-त्रिपर्ययच्युदासअनावश्यक हो आयगी क्योंकि महाप्रलय में जीवप्रयत्न के बिना शिवप्रयत्न से ही सब की मुक्ति हो जायगी । यदि यह कहा जाय कि शीघ्रमुक्ति के लिये माक्षोपाय को प्राप्त करने की प्रवृत्ति आवश्यक है अतः संन्यास आदि में शीघ्रमुक्तिकामी को प्रवृत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती-तो उपादान में शोघ्रमुक्ति की स्वरूपयोग्यता का कोई नियामक पूर्वपक्षी को अनिच्छयापि स्वीकार करना आवश्यक होगा । फिर ऐसा जो नियामक माना जायगा वही सिद्धान्ती का अभिमत अपुनर्बन्धकत्व होगा। यदि यह कहा जाय कि-'मुक्ति की स्वरूपयोग्यता आत्मत्यरूप से ही होती है । ईश्वर में आत्मरूप से
की स्वरूपयोग्यता होने पर भी मुक्ति के विशेषकारणों के अभाव से उसमें मुक्ति का अतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता । शीघ्र मुक्ति की स्वरूपयोग्यता के (आत्मत्य से अन्य) किसी नियामक की कल्पना भी आवश्यक नहीं है क्योंकि मुक्तिहेतु के शीघ्र सन्निधान होने पर शीघ्रमुक्ति अर्थतः सिद्ध हो सकती है, उसके लिये किसी अतिरिक्त हेतु को कल्पना निष्प्रयोजन है, अत: अपुनर्बन्धकत्व का अभ्युपगम न करने पर भी कोई दोष नहीं है। किन्तु यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि उपादान में स्वभावविशेष माने विना अर्थवश भी उपाययविशेष की सिद्धि नहीं होती, अन्यथा सूती तन्तुओं से रेशमी वस्त्र प्रादि की उत्पत्ति का अतिप्रसङ्ग हो सकता है। किसी व्यक्ति की किसी समयविशेष में ही संन्यास प्रावि में प्रवत्ति होती है, इस नियम का निर्वाह भी बिना हेतुविशेष के नहीं हो सकता । अष्टविशेष को उसका हेतु मानने पर नामान्तर से अपुनर्बन्धकत्व हो स्वोकृत हो जाता है, अतः स्पष्ट है कि अनादि मव्यय वश हो मुक्ति के साधनों को प्राप्त करने में जोष प्रवृत्त होता है।
[सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के उत्तरोत्तर परिणाम ] ८वी कारिका में दर्शन का फल बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है. वर्शन प्राप्त कर तथाभब्यत्वस्वभावयुक्तजीव, चिन्तामणि पाने वाले दरिद्र के समान कृतार्थ बनकर धन्य हो जाता है, सम्यग् दर्शन से सम्पन्न हो जाता है, अर्थात फलोदय होने तक उससे हेय तथा उपादेय का विवेक बना रहता है । समय के वेत्ता=जैन सिद्धान्त के अभिज्ञों का कहना है कि प्रतिज्ञात प्रवृत्ति-हेयहानउपादेयोपादान का निर्वाह न करने पर सम्यक्त्व नहीं होता। अतः यह माना जाता है कि वर्शन का उदय होने पर मोक्षलाभ पर्यन्त हेय-उपादेय का विवेक विद्यमान रहने पर उसका सम्यक्त्व बना रहता है। सभ्यग् दर्शन से युक्त जोष को तस्वधद्धान का लाभ होता है। तत्त्ववद्धान का अर्थ है सत्त्व. विषयक अभिनिधेश-'यह वस्तु ऐसी ही है। ऐसा निश्चय ।
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