SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 103
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७८ ] ! शासवार्ता स्त० ६ श्लो०८ प्रधानज्ञानरूप विज्ञानोत्तरविनातार्थावलम्बनतथाविधक्तिकरूपो होत्तरप्रत्यवायसंभावनानिमित्तोक्तयुक्तिविरुद्धार्थच्यावर्तनात्मका पोहोत्तरेण विज्ञानोहा-पोहानुगमविशुद्धेन 'हमित्थमेव' इति निश्चयरूपेण तत्वाभिनिवेशेन: 'समारोपविघातकता चित्तकालुष्यापनायिना मिथ्यात्वमोहनीयादिक्षयोपशमजनितेन चेतःप्रसादेन' वाः पूतात्मा-पवित्राशयः, भवोदधौ-मिथ्यास्वागाधजले कपायपातालकलशसंक्रान्तबहलविपाकानिलवेगसमुच्छलकटुक.फलपरिणतिकल्लोले प्रदीप्तविषयतृष्णारूपवडवानलभीषणे नानाविधादिरतिरूपतिमि-तिमिङ्गिलग्रस्तक्षुद्रगुणमीन सानुबन्धपापकर्मरूपमहानधावर्त भग्नभव्यधर्मयानपात्रे दुःखशतगिरिग्रावपाते क्रन्ददनेकसत्वनचक्र संसारसमुद्रे न रमते, तत्त्वदर्शिस्वेन भवाऽपहुमानित्त्वात् । प्रागर्जित कमोंपनीते सुख-दुःखे भुजानस्यापि विषयतपरुच्यभावेन परमार्थतस्तदभोजित्वात् । उक्तं च समयसारकृताऽपि "'सेवंतो वि ण सेवइ, असेवमाणो वि सेवए कोई" इति । लौकिकैरप्युक्तम्-"आहता हि विषयेकतानता ज्ञानधीतमनसं न लिम्पति" इति ॥ ८ ॥ [ सुश्रूषा आदि क्रम से तत्त्वश्रद्धान का उदय ] यह निश्चय, विज्ञान-कह और अपोह का अनुगामी होने से विशुद्ध होता है, यानी अप्रामाण्यज्ञान से अनभिभूत होता है। इसके उदय का क्रम इस प्रकार है-सर्वप्रथम भव्यजीव को तत्व की शश्रषा तत्त्व को सुनने की इच्छा होती है। उसके बाद श्रवमेन्द्रियद्वारा श्रोत्रोपयोग-तत्त्व होता है । श्रषण के अनन्तर शास्त्रप्रतिपाथ तत्त्व का अवबोधरूप तत्त्वप्रण उत्पन्न होता है । तत्त्वग्रहण के बाद तत्त्वधारण-तत्व का अविस्मरण होता है । उसके पश्चात् तत्त्वविज्ञान की उत्पत्ति होतो है। तत्वविज्ञान उस तत्वज्ञान का नाम है जिससे तत्व के विषय में मोह. सन्देह और भ्रम का निरा. करण हो जाता है । तत्त्व विज्ञान के बाद ऊह होता है, कह का प्रर्थ है विज्ञात अर्थ के विषय मेंविज्ञात वस्तु को ऐसा मानना या अन्यथा मानना-क्या सम्भव हो सकता है' इसप्रकार के विमर्शरूप वितर्क । अह के अनन्तर अपोह होता है । यह अपोह, तत्व के पक्ष में प्रस्तुत की गई युक्तियों से विरुद्ध अत एव प्रत्ययाय को सम्भावना के निमित्तभूत अर्थ का व्यावर्तन निराकरण करता है। अब विज्ञान, ऊह और अपोह ठीक ठीक सम्पन्न हो जाते हैं तब उनके अनन्तर 'यह ऐसा हो है इस प्रकार ढनिश्चयरूप तत्वाभिनिवेश यानी पारमाथिक उक्त तत्वश्रद्धान का जन्म होता है । तत्त्वश्रद्धान का एक दूसरा भी अर्थ है चित्त का प्रसाव-चित्त का नमल्य, यह मिथ्यात्वमोहनीय आदि कर्मों के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, जो तत्त्वविषय में प्रतिवादियों द्वारा उपस्थापित आरोपों को विधात करता है तथा वित्त के कालुष्य-मालिन्य को दूर करता है । ऐसे तत्त्वश्रद्धान से जीव को आत्मा पवित्र हो जाती है, अतः यह संसार सागर में नहीं रमता, आसक्त नहीं होता है । [संसार एक भीषण समुद्र । व्याख्याकार ने संसार को सागररूपता का बड़ा सुन्दर प्रतिपादन किया है। सचमुच ही १. सेवमानोऽपि न सेवते, असेवमानोऽपि सेवते कश्चित् ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy