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________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] [ ७६ मूलम्–स पश्यत्यस्य यद्रूपं भावतो बुद्धिचक्षुषा । ___ सम्यक्शास्त्रानुसारेण रूपं नष्टाक्षिरोगवत् ॥ ९॥ सः-सम्यग्दृष्टिः, अस्य भयोदधेः, यद्रपंवर्णितस्वरूपं विषयतृतिमिरदोपादज्ञानिनाsदृश्यमानम् , शङ्खवत्यमिब कामलोपहतदृशा, पश्यति, तत्त्वतो यथावस्थितस्वरूपेण । केन ? इत्याह-सम्यागारमानुसारेण मारशिपाइनाहीतरागार वनकदत्तदृष्टितया, बुद्धिरेव मतिज्ञानावरणीयक्षयोपशमप्रसूता सद्ग्रन्थग्रहणपटुमधाख्यपरिणाम एव चक्षरनुपहतलोचनं तेन । पापश्रुतारज्ञाकारिणी खलु सम्यक्शास्त्रानुसारिणी बुद्धिः, प्रेक्षावदातुरस्योत्तमौषध इब नद्वतः सद्ग्रन्थ एव ग्रहणादरात् । तेन पापश्रुतजनितकुवासनानिद्रया व्यवधानाभावाद् मोहदोषोपहतेश्च पश्यति निरन्तरमेवैतद्वांस्तात्त्विकं संसाररूपम् । दृष्टान्तमाह-रूपं-शङ्खश्वैत्यादिकम् नष्टाक्षिरोगवत् गलितनयनगतपित्तादिदोषवत् । रोगनाशश्च रोगान्तरप्रतिरोधस्योपलक्षणम् , इत्यमेव निरन्तर रूपसम्यग्दर्शन सिद्धेः । स्यादेतदेकस्यैव बुद्धिगुणस्य कथं पूर्वदोषनाशकत्वम् , उत्तरदोषप्रतिबन्धकत्वं च १ । मैवम् , सामर्थ्य विशेषादुपपत्तैः; दृष्टं ह्ये कस्यैवोष्णस्पर्शस्य पूर्वशीतस्पर्शनाशकत्वम् माविशीतस्पोत्पत्तिप्रतिबन्धकत्वं चेति ॥ ६ ॥ यह संसार एक समुद्र है इसमें मिथ्यात्व का अथाह जल भरा है । कर्म के कटु फलपरिणाम की लहरें कषायरूपी पातालकलश में से सक्रान्त होनेवाले प्रभूतकर्मविपाकरूपी प्रबल वायु के वेग से इसमें निरन्तर उच्छलित होती रहती है। विषयतृष्णारूप प्रचण्डवडवानल ने इसे प्रत्यन्त भीषण बना रखा है। अनेकविध विरतिरूप तिमि-तिमिडल प्रादि महामत्स्य इसमें जीत के गुणरूपी क्षमत्स्यों को सदा कलित करते रहते हैं। सानुबन्ध पापकर्मरूपी महानदी के आवत्तों से भव्यधर्म का यान इसमें संबंध भग्न होता रहता है । दुःख के सैंकड़ों पर्वतीय पाषाणखण्डों के पतन से अनेकजीवसमूह इसमें अन. परत कन्वन करते रहते हैं। सम्यग् दर्शन से सम्पनजन तश्वी होने के कारण इसे भयावह मानकर इसमें प्रानन्दित नहीं होता, पूर्वाजित कों द्वारा उपस्थापित सुख दुःख का भोग यद्यपि वह करता है तथापि विषयतृष्णारूप हघि न होने से वास्तवदृष्टि से वह उन का भोग नहीं करता। 'समयसार' के रचयिता कुन्दकुदाचार्य ने भी इस कथन को यह कह कर प्रमाणित किया है कि-'खाद्यदृष्टि से विषयों के सेवन में लगा हआ भो मनुष्य विषयासक्ति न होने से वास्तव दृष्टि से विषयों का सेवन नहीं करता और कोई बाह्यदृष्टि से विषयों के सेवन से बहिर्मुख रहकर भी चित्तके विषयो होने से धास्तव दृष्टि से विषयों का सेवन करता है।' लौकिक पुरुषों ने भी कहा है कि जिस पुष का मन ज्ञान से निर्मल हो जाता है उसमें कदाचित एकतानता हो भी जाय तो भी उससे उसका मन मलिन नहीं होता ।।८।। [ सम्यग्दृष्टि को भवरवरूप का यथार्थ दर्शन ] हवीं कारिका में उस तत्त्वदर्शन का वर्णन है जिसके कारण सम्यग् दर्शन से सम्पन्न पुरुष
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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