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[ शास्त्रवार्त्ता स्व० श्लो० १०
ततो यत्करोति तदाह
मृलम् - तद् दृष्ट्वा चिन्तयत्येवं प्रशान्तेनान्तरात्मना । भावगर्भ यथाभावं परं संवेगमाश्रितः ||१०||
तत् = भवोदधिरूपम् दृष्ट्वा चिन्तयति एवं वक्ष्यमाणम्, प्रशान्तेन क्रोधाद्यनाकुलेन अन्तरात्मना, भावगर्भम् - भावनाभिमुखोपयोगसारम, यथाभावम् - यथार्थतत्त्वम् परम्=
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संसार में प्रासक नहीं होता । कारिका का अर्थ इस प्रकार है संसार समुद्र का वर्णित स्वरूप जिसे विषय तृष्णारूप तिमिरदोष से ग्रस्त अज्ञानी मनुष्य ठीक उसी प्रकार बेख नहीं सकता जैसे कामला रोग से ग्रस्त वक्षुषाला मनुष्य शङ्ख के श्वेत्य को नहीं देख पाता, किन्तु सम्यग्दर्शन से युक्त पुरुष उसे उसके वास्तवरूप में देखता है क्योंकि उसे परमार्थ के उपदेष्टा वीतरागी भगवान के प्रवचनरूप सम्यक शास्त्र से एक विलक्षण दृष्टि प्राप्त होती है, यह दृष्टि है एक विशिष्ट बुद्धि जो मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से उत्पन्न एक विशेषपरिणाम है जिसे मेधा कहा जाता है। सद्ग्रन्थों के ग्रहण में पटु यह मेधा ही संसारसागर के उक्तरूप को देखनेवाला निष्प्रतिबन्ध नेत्र है। इस बुद्धि नेत्र से ही सम्यग् ब्रष्टा पुरुष संसार के उक्तरूप को देखता है। पापभुत यानी संसारभावपोषक ग्रसर्वज्ञ कथित शास्त्र की प्रथा धीर भगवान 'जिन' सर्वज्ञ के सम्यक् शास्त्र का अनुसरण करनेवाली यह बुद्धि जिसे प्राप्त होती है, वह जैसे प्रेक्षावान् रोगी उत्तम औषध को ही ग्रहण करता है उसी प्रकार आदरपूर्वक सत्प्रत्य को ही ग्रहण करता है ।
नेत्र के वित्ताविशेष का नाश एवं रोगान्तर की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध रहने पर जैसे निर्दोष नेत्र वाली व्यक्ति शङ्ख में श्वेतरूप को ही देखता है [ रोगान्तर उत्पत्ति का अवरोध बना रहे तभी रूप का वास्तव दर्शन सिद्ध हो सकता है, अन्यथा नहीं ।] वैसे ही पाश्रुतसे उत्पन्न कुवासना की निद्रा काव्यवधान न होने पर तथा मोहदोष का नाश हो सभी उत्समबुद्धिनेत्र से सम्पन्न पुरुष संसार के तात्विक स्वरूप को सदा ही देखता है।
कहने का आशय यह है कि जैसे शङ्खगत रूप के श्वेतश्वस्वरूप का यथार्थ दर्शन तभी होता है। जब नेत्र का पित्तदोष नष्ट हो जाता है तथा उसी जैसा कोई नया रोग नहीं उत्पन्न होता, उसी प्रकार संसार के उक्तरूप को वास्तविकता का सम्यग्दर्शन तभी होता है जब सम्यग्रद्रष्टा पुरुष का बद्धिगत मोह जैनशास्त्र के अध्ययन से दूर हो जाता है और जनेतर शास्त्रों की कुवासना नहीं होती, अत: संसार की वास्तविकता को समझने के लिये जनशास्त्र का श्रद्धापूर्वक अध्ययन और पापश्रतों का खण्डन दोनों अपेक्षित हैं ।
यदि यह शङ्का की जाय कि एक ही बुद्धि गुण पूर्वदोष नाशक और उत्तरदोष का प्रतिबन्धक दोनों कैसे हो सकता है तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि सामर्थ्यविशेष से दोनों हो बातें उपपन्न हो सकती हैं । यह कोई प्रपूर्व बात नहीं है क्योंकि एक ही उष्णस्पर्श से पूर्वशोतस्पर्श का नाश और भाषी शीतस्पर्श की उत्पत्ति का प्रतिबन्ध देखा जाता है || E
[ संवेगगर्भित आत्मविचारणा ]
भवसमुद्र के पूर्वोक्तस्वरूप को देखकर परमसंबेगारूढ सम्यग्दृष्टा अन्तरात्मा से क्रोधादिविकार रहित होकर भावनालक्षी उपयोग से गभित यथार्थतत्त्व का निम्नोक्तरीति से चिन्तन करता है