SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 106
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ स्था का टीका एवं हिन्दीविवेचन ] [८१ उत्कृष्टं संवेगमाश्रितः । भवति हि शुष्काचर्वणप्रायादच्यात्मशास्रवणात् तद्रसतुल्यमर्थप्रहणम् , प्रीणयति चान्तरान्मानं तत् । ततश्च गुड-खण्ड-शर्करोपममृदुमध्याधिमाप्रसंवेगोत्पत्तिः सत्क्रियाऽऽदरादिलिङ्गा । संवेगमहोदधेनिस्यन्दभूतं च वक्ष्यमाणचिन्तनमिति विभावनीयम् ॥१०॥ यञ्चिन्तयति तदाहमूलम्-जन्ममृत्युजराव्याधि-रोगशाकाध्रुपद्रतः। क्लेशाय केवलं पुसामहो ! भीमो महोदधिः ॥ ११ ॥ जन्म-मातशरीरे संक्रमणम् मृत्युः आयुःक्षयः, जराम्चयोहानिः, व्याधिः क्षयादिः रोगः-ज्वरादिः, शोकः इष्टवियोगादिजन्य आक्रन्दाद्यभिव्यङ्ग्यः परिणामः, आदिना वधबन्धादिपरिग्रहः, एतैरुपद्रुतः, तत्स्थानामुपद्रुतत्वेऽपि तत्रोपद्रुतत्वमुपचयते, गिरिगतहणादीना दाहेनेर गिरौ दग्धत्वम् , 'अहो' इत्यपूर्वदर्शनजनिताश्चर्याथों निपातः भीमः अतिभयावहः, भवोदधिः संसारसमुद्रः, पुसां-पुरुषाणाम् , सकलप्राण्युपलक्षणमेतत् , क्लेशाय श्रात्य - न्तिकदुःखाय, न तु सुखलेशायापि । [ संवेगगर्भित आत्मविचारणा ] मयसमुद्र के पूर्वोक्तस्वरूप को देखकर परमसंवेगारुढ सम्यग्दृष्टा, अन्तरात्मा से कोषादिविकार रहित होकर भावनालक्षी उपयोग से अमित यथार्थतत्व का निम्नोत्तरीति से चिन्तन करता है। अध्यात्मशास्त्र का श्रवण सूखी ईख के चर्वण के समान है, उसका अर्थग्रहण ईख के रसग्रहण के समान अन्तरास्माका तर्पक होता है । ईख के रससे जैसे गुख, खांड और शक्कर की उत्पत्ति होती है पैसे हो अध्यात्मशास्त्र के प्रथज्ञान से मदु, मध्य, अधिमात्र संवेग की उत्पत्ति होती है जो शुभकर्मों के समावर से अवगत होती है । निम्नोक्त चिन्तन संवेगसमुद्र का निस्यन्व है, उसका एक मधुर प्रयाह है।।१०।। चिन्तन को ही दिखलाते हैं सम्यग्दर्शन प्राप्त पुरुष इसप्रकार चिन्तन करता है कि संसारसमुद्र प्रति भयङ्कर है, जन्म, मृत्यु, जरा, व्याधि, रोग, शोक, वध, बन्ध मावि उपद्रवों से भरा है । यद्यपि ये सारे उपद्रव संसारस्थ जीवों के हैं तथापि इनका औपचारिक वर्णन संसार में भी होता है। यह वर्णन ठीक उसीप्रकार का है जैसे पर्वतब सृण आदि के वाह से पर्वत की ग्धता का वर्णन होता है । इन उपद्रवों में जन्म का अर्थ है माता के शरीर में भाषो सन्तान के रूप से जोव का प्रवेश। मृत्यु का अर्थ है जीव के आयु का क्षय । जरा का अर्थ है वय (जीवनकाल) का ह्रास । व्याधि का अर्थ है क्षय आदि, रोग का अर्थ है ज्वर आवि, शोक का अर्थ है इष्टवियोग आदि से होनेवाला चित्तपरिणाम जो इष्टवियुक्तजीच के वन आदि से व्यक्त होता है । वषका अर्थ है प्रस्त्रादि के प्रयोग से प्राणहानि । बन्ध का अर्थ है लौहगृखला आदि से बांधा आना । खेद है कि इन उपद्रयों से भरा यह भीषण संसार सम्पूर्ण प्राणियों को केवल क्लेश ही देता है, इसमें किसी को लेशमात्र भी सुख नहीं मिलता।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy