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________________ [ शास्त्रवार्ता स्त० ६ इलो० ११ भवति हि नारकाणामत्रत्या विशयित शीतोष्णाद्यनन्तगुणशीतोष्णादिवेद्या क्षेत्रप्रत्यया भवस्वाभान्यात् महिष शृह्यादीनामिवोदीर्णातिमत्सराणां दन्तादन्ति नखानखि केशाकेशि-खड्गाखड्गि-कुन्ताकुन्ति-मुष्टामुष्टिन्दण्डादण्डिप्रबलग्रहारेण परस्परोदीरिता व्याधादिकृता मृगादीनामित्र संक्लिष्टसुरोदीरिताऽपि वेदना कुन्ताग्रोपर्यारोपण-कूटशाल्मलिवृक्षाघःस्थापन - संतप्तत्र पुपान - वैतरणीवाहनादिजनिता । न तेषां नेत्रनिमीलन समयमपि सुखमस्ति । को हि नाम तद्वेदनों विशिष्य विना सर्वज्ञं वक्तुमीष्टे ! न हि सा रसनासहस्रेणापि वक्तु पार्यते । तिरश्वामणि कशाऽङ्कुशा - ऽऽराप्रहार-बधबन्ध वृड्वानादिना भावजीवमनुपरतैव वेदना । मनुजानां तूक्त - प्रा । देवा अपि दिव्यभोगमुपस्थितपाताभिमुखं घाशुचिमात् गर्भप्रवेशं च पश्यन्तस्तथा खिद्यन्ति यथोपस्थितशूलारोपमयचौरोऽपि न खिद्यति । नापि तेषामीय - विषादादिना परस्परकलहोपरमोऽप्यस्ति । इति न चतसृणां गतीनामेकस्यामपि सुखविश्रामोऽस्ति । भणितं च श्रुतकेवलिना - [ उपदेशमाला - २७६ / २८७ ] ८२] [ नारक आदि चार गति में दुःख ही दुःख ] नारकीय जीवों को क्षेत्रस्वभावमूलक प्रनेकविध क्षेत्रवेदनाएँ होती हैं, जैसे इस लोक में जो प्रतिशय शीत-उष्ण प्रावि होता है उससे अनन्तगुणा अधिक शीत उष्ण आदि नरक में होता है जिस के अनुभव से असह्य वेदना होती है। महिष आदि सोंगवाले पशुओं को आपसी भिडन्त से जो वेदना होती है उसके समान तीव्रवेदना उत्कटमात्सर्य युक्त उन नारकीय जीवों को होती है, जैसे परस्पर में एकदूसरे को दांत से काटते हैं, नलों से खरोचते हैं, केश पकडकर खींचते हैं, खड्ग, कुन्त अस्त्रों, मुक्कों और दण्डों से प्रबल प्रहार करते हैं। व्याघ्र आदि से मृग प्रादि को जैसी वेदना होती है, संक्लेश युक्त परमाधामी देवताओं के द्वारा नारकीय जीवों को भी वैसे हो वेदना होती है। इसके अतिरिक्त कुन्त की धार पर चढने, विषवृक्ष शाल्मलिवृक्ष के नीचे ठहरने, पिघले हुये संतप्त लोह को पीने तथा तरणी नवी में बहने से नारकीय जीवों को दुःसह बेदना होती है। इन वेदनाओं से ग्रस्त ओथों को नेत्र पलक में जितना समय लगता है उतने बल्पतम समय में भी कोई सुख नहीं होता । नारकीय जीवों को जो बेदना होती है उसका विशेषवर्णन सर्वज्ञ को छोड़ दूसरा कौन कर सकता है, सहस्रों जिह्वा से भी उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। तियंग योनि के अयों को मी कशा, अड़कुश, आरा के प्रहार, विभिन्न प्रकार से वघ एवं बन्धन तथा भूख प्यास आदि की बाधा से अनेक प्रकार की वेदना होती है जो उनके जीवन में कभी समाप्त नहीं होती। मनुष्यों की वेदना का वर्णन तो कर ही दिया गया है। देवता मी विव्यभोग की समाप्ति की निकटता तथा माता के अशुचि गर्भ मैं निकटभावी प्रवेश का विचार कर इतना अधिक खिन्न होते हैं जितना शूली पर चढाये जाने के भय से चोर भी नहीं होता । ईर्ष्या, विषाद आदि से होनेवाला उनका परस्पर कलह भी कभी समाप्त नहीं होता, इसप्रकार नारक, तिर्यक्, मनुष्य देव चारों योनियों में से किसी भी योनि में जोव को कमी सुखमय विश्राम नहीं प्राप्त होता ।
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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