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[शास्त्रवा० स्त० १०/१८ इतरस्य च संशययोग्यतया स्वतन्त्रप्रवृत्त्यनुपयोगित्वात् , निर्मूलपरम्पराप्रसक्तेः । कामादिविप्लुतविशदज्ञानवत इव भावनाबललब्धविशदज्ञानवतः सर्वज्ञस्य तद्वदुपप्लुतत्वप्रसङ्गापादनं च वृथैव, भावनाबलाज्ज्ञानं वेशद्यमनुभवति' इत्येतावत्मात्रेण दृष्टान्तस्योपात्तत्वात्, सकलदृष्टान्तधर्माणां साभ्यधर्मिण्यासऽवनस्याऽयुक्तत्वात् , अन्यथा सकलानुमानोच्छेदप्रसक्तेः ।
यच्च परोक्षादपरोक्षोत्पत्यदर्शनमुद्भावितम् , (पृ.१७)सदज्ञानविलसितम्, परोक्षादपि तत्तास्मरणात् स्वयमपरोक्षतत्ताविपयकमत्यभिज्ञानस्वीकारात् । यस्तु श्रवणादेः प्रत्यक्षपमाकरणत्वेन प्रत्यक्षपमाणत्वासन उक्तः, स तु 'साक्षात्कारिप्रमाथाः करणं प्रत्यक्षम्' इति बदतो नैयायिकान् प्रति शोभते न तु " स्पष्ट प्रत्यक्षम्" इति वदतोऽस्मान् प्रति । अभेद एव प्रदीप-प्रकाशयोखि क्रिया-करणशक्ति
[सर्वन में समादि विकार की भापत्ति का निरसन ] सर्वज्ञ को आगमार्थ की भावना से सब पदार्थों का विशद ज्ञान प्राप्त होता है, इस मान्यता के विरोध में प्रतिपक्षी द्वारा जो यह आपत्ति दी जाती है कि-जैसे विशवज्ञान से सम्पन्न भी मनुष्य काम आदि विकारों से अभिभूत होते हैं उसी प्रकार भावना से विशदशान को अर्जित किये हुये सर्वज्ञ भी कामादि विकारों से अभिभूत हो सकते हैं वह आपत्ति व्यर्थ है। सर्वेश के ज्ञान की विशदता के समर्थन में अन्य मनुष्य के भावनामूलक विशदशान का जो दृष्टान्त दिया जाता है यह केवल इतना ही बताने के लिये कि भावना के बल से विशदजान होता है । यह नहीं कि भावनाबल से शान प्राप्त करनेवाले मनुष्य की सर्वज्ञ में सब प्रकार समानता होती है। अत: साधनीय धर्मी में प्रान्त के समस्त धर्मों का आपावान अयुक्त है, क्योंकि यदि साध्य धर्मी में दृष्टांत के समस्त धर्मा का आपादान होगा तब अनुमान मात्र का उच्छेद हो जायगा, क्योंकि उस स्थिति में दृष्टान्त का समानधर्मी पक्ष भी असन्दिग्ध साध्यक अथवा निश्चितसाध्य क ही होगा, फिर उस में साध्य का अनुमान नहीं हो सकेगा, क्योंकि सन्दिग्ध किंवा असिद्ध ही साध्य का अनुमान आनुभविक है ।
[सर्वज्ञविरोधी की अनेक पूर्वपक्षयुक्तियों का निरसन] सर्वज्ञता को आगमप्रभव मानने पर जो इस दोष का उद्भावन किया गया कि (पृ. १८) 'परोक्ष से अपरोक्षशान की उत्पत्ति कहीं दृष्ट नहीं है, अतः आगमरूप परोक्षप्रमाण से सर्व विषयक अपरोक्षशान का अभ्युपगम असंगत है'. यह अज्ञानमुलक है क्योंकि तत्ता के परोक्ष स्मरण से तत्ता की अपरोक्ष प्रत्यभिज्ञा का प्रतिपक्षी ने स्वयं स्वीकार कर रखा है। श्रवण आदि को प्रत्यक्षप्रमा का कारण मानने पर उन में प्रत्यक्षममाणत्व की जो आपत्ति दी गई, व्याख्याकार के मत से बह आपत्ति ठीक ढंग से नैयायिकों को ही हो सकती है क्योंकि वे साक्षात्कारिप्रमा के करण को प्रत्यक्षप्रमाण मानते हैं किन्तु जनों को वह आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि वे स्पष्टशान को प्रत्यक्षप्रमाण मानते हैं। यदि यह शङ्का की जाय कि 'स्पष्टशान तो प्रत्यक्षप्रमा है वह प्रत्यक्षप्रमाण कैसे हो सकता है। क्योंकि दोनों में अभेद होने पर भेदनियत क्रियाकरणभाव न हो सकेगा-तो यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि जैसे प्रदीप और प्रकाश में वस्तुतः अभेद होने पर भी शक्तिभेद से भेद की उपपत्ति होती है उसी प्रकार किया और १ प्रमाणनयतत्त्वालोके २-२॥