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________________ त्या. क. टीका-हिन्दीविवेचन सर्वज्ञपरम्परामाः । अत एव "तप्पुस्बिया अरहया"....[आव० नि० गाथा ५६७] इत्यादावनवस्थादिदोषस्यापि परिहारः । अर्थज्ञानशब्दरूपत्वाच्चागमस्य मरूदेव्यादीनां सार्वश्यस्य वचनरूपागमाभ्यासाऽपूर्वकत्वेऽपि न क्षतिः, आगमार्थप्रतिपत्तित एव तेषामपि तथात्वसिद्धेस्तत्त्वतस्तरपूर्वकत्वात् । अभ्यासेनाऽस्पष्टस्य स्पष्टरचा योगदोषश्चानुक्तोपालग्भमात्रम्, ततोऽस्पष्टज्ञानमुपमृद्य स्पष्टज्ञानान्तरोत्पत्तेरेवोपगमात् "नम्मि उ च्छाउम स्थिए नाणे" [आव०नि० गाथा ४२१] इति वचनात् । अत एव प्रेरणाजनितं ज्ञानमम्मदादीनामप्यतीता--ऽनागत-सूक्ष्मादिपदार्थविषयमस्तीति सर्वत्रत्वं स्यात्' इति मीमांसकमनोरथतरून्मूलितः, अभ्यासजन्यस्पष्टविज्ञानस्य सकलपदार्थविषयस्यास्मदादीनामभावात्, प्रणीत आगम की अपेक्षा है, तथा आगमप्रणयन के लिये प्रणेता को धर्म आदि का ज्ञान अपेक्षित है। अतः तीसरे पर्याय में धर्मादिशान में धर्मा विज्ञान की ही अपेक्षा होने से चक्रक स्पष्ट है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सर्पक्षपरम्परा अनादि है, अत: सर्वश होने को इछुक प्रत्येकजन पूर्वपूर्व सर्वेनग्रणीत आगम द्वारा कर्तध्य तप का ज्ञान प्राप्त कर उस के अभ्यास से सर्वज्ञान का सामथ्र्य अर्जित कर सर्वशता प्राप्त कर सकता है। इसीलिये अईत् को अन्य अहंत पूर्वक मानकर अनवस्था आदि दोष का भी परिहार किया गया हैं । [ आगम सीर्फ शब्दात्मक ही नहीं है ] आगम अर्थशान और शब्द उभयान्मक है, इसीलिये मरूदेवीमाना आदि की सर्पक्षता शब्दरूपागमाभ्यासपूर्वक न होने पर भी कोई क्षति नहीं होती, क्योंकि भागमार्थ के शान से सर्वज्ञान की सिद्धि होने से उनकी सर्वशता में भी सर्वक्षपूर्वकत्व की सिद्धि हो जाती है । सर्वज्ञता को आगममूलक मानने पर जो यह बात कही गई कि 'अस्पष्टशान कभी अभ्यास से स्पष्ट नहीं हो सकता' घन अनक्त का उपारम्भ है. न कही गई बात को टिपर्ण बताना है. क्योंकि न त चास्थि ज्ञाने' इस आशय को प्रकट करनेवाले वचन से यह स्पष्ट कर दिया गया है कि आगम के अभ्यास से मति-श्रुतादि छानास्थिक अस्पष्टज्ञान का उपमर्दन होकर स्पष्ट केवल ज्ञानरूप ज्ञानान्तर की उत्पत्ति होती है। ___ आगम से सर्वशता की सिद्धि मानने पर मीमांसकों के मन में ऐसे मनोग्थ द्रम का उदय हो जाता है कि यदि आगम से सर्वज्ञता होगी तब तो उन जैसे सामान्य मनुष्यों को भी आगम द्वारा अतीत, अनागम, सूक्ष्म आदि पदार्थी का ज्ञान होने से उन जैसे मनुस्य भी सर्वज्ञ हो जाओंग । किन्तु मीमांसकों का यह मनोरथ द्रम इसलिये धराशायी हो जाता है कि उन जैसे मनुष्यों को समस्त पदार्थों का अभ्यासजन्यज्ञान भी स्पष्टज्ञानरूप नहीं होता और इस प्रकार का स्पष्ट झान ही समिता का नियामक होता हैं। जो ज्ञान स्पष्ट नहीं होता वह संशयाकान्त होने से स्वतन्त्र प्रवृत्ति में उपयोगी नहीं होता | दुसरी बात यह है कि सब पदार्थों के अस्पष्टज्ञान से सर्वाना मानने पर निर्मल परम्परा की प्रसक्ति होगी क्योंकि परम्परा के मूल में स्पष्टज्ञान का अभाव होगा और स्पष्ट शान ही किसी स्वच्छ परम्परा का प्रर्वतक होता है। १. सप्पुधिया अरहया पूइयप्ता य बिणयकम्म | च ककिंचो वि जद्द कह कहए णमए तहा तिथं ।। २. उपगम्मि अगते, नलम्भि उ छाउमस्थिए. नाणे । राइए संपत्तो महसेणवर्णमि उल्लाणे ||
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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