________________
स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचम]
[ ११३ भेदोपपत्तेः । योऽपि च 'सर्वज्ञज्ञानेन....' (पृ०१७-६)इत्यादिप्रसन्न उक्तः सोऽपि न युक्तः, उत्पन्नस्य तस्य सर्वथाऽनाशेनोत्तरकालमकिञ्चिज्ज्ञत्वानुषपत्तेः । स्यान्मतम्-द्वितीयादिक्षणे गृहीतग्राहित्वाद प्रामाण्यापत्तिरिति । मेवम् , अगृहितग्राहित्वस्य प्रमाया अलक्षणत्वात् , धारावाहिकप्रमायामव्याप्तेः, अमेऽतिव्याप्तेश्च । तदुक्तमुदयनेनापि-"अव्याप्तेरधिकच्याप्तेरलक्षणमपूर्वग्" इति । अथ 'यथार्थत्वे सति' इति विशेषणाद् नातिव्याप्तिः, धारावाहिके च पूर्वज्ञानजन्यज्ञातताया: पूर्वज्ञानाऽविषयाया उत्तर
करण में अभेद होने पर भी शक्तिभेद से भेद की उपपत्ति हो सकती हैं और इसी भेद से अभिन्न एक वस्तु में भी कियाकरणमाय हो सकता है ।
सर्वज्ञ के सम्बन्ध में जो यह आपत्ति दी गई कि-'सर्वज्ञान से एक क्षण में सार्थग्रहण हो जाने पर उत्तरकाल में सर्वश में अकिश्चिज्शता (कुछ भी न जानने) की आपत्ति होने से उनकी सर्वशता का लोप हो जायगा -वह युक्त नहीं है, क्योंकि सर्वविषयक शान जब एक बार उत्पन्न हो जाता है तब उस का कदापि नाश नहीं होता, अत: उत्तरकाल में अकिश्चिशता साविषयकसानवत्ता-अल्पससा की आपत्ति नहीं हो सकती।
[गृहीतग्राहित्त्व अप्रामाण्यप्रयोजक नहीं है यदि यह कहा जाय कि-' उक्त दोष भले न हो किन्तु द्वितीय, तृतीय आदि क्षणों में सर्वच के ज्ञान में अप्रामाण्य की आपत्ति अनिवार्य है क्योंकि उन क्षणों में बह गृहीत अर्थ का ही ग्राहक होता है और प्रमाण यही होता है जो अगृहीत अर्थ को ग्रहण करता है। तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि अगृहीत अर्थ को ग्रहण करना, यह प्रमा का लक्षण नहीं है। यनः यदि इसे प्रमा का लक्षण माना जायगा तो धारावाहिक प्रमा में अध्यामि होगी क्योंकि वह भी द्वितीय, तृतीय आदि क्षणों में प्रथमक्षण में गृहीत अर्थ को ही ग्रहण करती है। बं ब्रम में उक्त प्रमालक्षण की अतिव्याप्ति होगी क्योंकि शुक्ति में रजतत्व का ग्राहक भ्रम भी पूर्व में शुक्ति में अगृहीत ही रजतत्व को ग्रहण करता है । उदयनाचार्यने भी इन्हीं दो दोषों में प्रमा के उक्त लक्षण को त्याध्य बताया है, उन्होंने कहा है कि 'अपूर्वदृक्-पूर्व में अज्ञात अर्थ का प्राहकज्ञान प्रमा है' यह प्रमा का लक्षण नहीं है क्योंकि यह लक्षण धागयाहिक प्रत्यक्ष प्रमा में अच्याप्त और अप भ्रम में अतिव्याप्त है।
[लक्षण में यथार्थत्वादि के प्रवेश से दोपपरिहार अशक्य] यदि यह कहा जाय कि-' उक्त लक्षण में यथार्थत्व का निवेश कर देने से भ्रम में अतिव्याप्ति का परिहार हो सकता है और धारावाहिक झानों को पूर्वज्ञान से अगृहीत पूर्यशानजन्य शातता का ग्राहक मान लेने से उन में अव्याप्ति का भी निरास हो सकता है। अनः यथार्थत्व से घटिल अगृहीतग्राष्टिज्ञानत्य को प्रमालक्षण मानने में कोई दोष नहीं है। मी व्यवस्था करने पर यदि ऐसी शङ्का हो कि-" लक्षण में यथार्थव के निवेश मे भ्रम में अतिव्याप्ति का वारण हो जाने पर भी धारावाहिक प्रमा में अध्याप्ति का वारण जिस रीति से किया गया है, वह रीति ठीक नहीं है क्योंकि गृममाण अर्थ में ज्ञानविषयता के व्यवहार की उपपत्ति यदि ज्ञान से अर्थ में शातता की उत्पत्ति मान कर की जायगी तो अतीत अनागत १. न्यायकुमुमाञ्जली चतुर्थस्तबके कारिका ।।
६५