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________________ ल्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ] परः शंकते पापादत्रेदृशी बुद्धिर्न पुण्यादिति न प्रभा । न लोको हि विगानत्वात् तद्वत्वाद्यनिश्वितेः ॥ ३८ ॥ | १७३ पापात् = दुरदृष्टात् अत्र वेदे - ईदृशी बुद्धिः विनाऽऽस्तिक्यपरिपाकनिमित्तमदृष्टम् इति भावः । रिति न प्रमानात्र प्रमाणं किञ्चिदिति भावः लोको हिन्न लोक एवात्र प्रमाणम् । कुतः ? उक्ताऽऽशङ्कारूपाः ततः के एतां निवर्तयेद उत्तरयति-न पुण्यात् =न पुण्यादीदृशी बुद्धि। ' लोक एवात्र प्रमाणमित्याशङक्याह-न इत्याह - विगानत्वाद विरुद्धं गानमभ्युपगमो यस्येति बहुव्रीहिस्तस्य भावस्तत्त्वं ततः । तथा च केषांचिद् विप्रतिपतेर्नात्र सकललोकंकवाक्यतेति भावः । ' यद्यप्येवम्, तथापि महवोऽस्मत्पक्ष एव तद्बहुत्वाद्यनिश्चितेः-- तेषामुक्ताभ्युपगमवतां बहुत्वस्त्र सर्वाऽदर्शनेनाऽनिश्चयात् ॥ ३८ ॥ इति बहूनामभ्युपगमः प्रमाणमित्याशङ्क्याह आदिना तदन्येषामन्पत्वस्य वा अनिश्चितेः ३८ वीं कारिका में उक्त कथन के सम्बन्ध में कर उस का उत्तर दिया गया है | कारिका का अर्थ इसप्रकार है पराभिमत को पूर्व पक्ष के रूप में प्रस्तुत [ पाप-पुण्य और लोकवहुत्वापत्य का अनिश्चय ] पूर्वपक्षी की ओर से यदि यह कहा जाय कि वेद वस्तुतः कर्तृक हैं, उस के अदृश्य कर्ता की शंका पापी पुरुषों को ही हो सकती है। पुण्यशाली चिनेकी पुरुषों को नहीं हो सकती और आस्तिक्यपरिपाक कारक अदृष्ट के बिना उस का निवर्तन कौन करेगा ?' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस बात में कोई प्रमाण नहीं है कि वेद के अवश्यकर्ता की शंका पाप से डी होती है, पुण्य से नहीं होती । अपितु यही मानना उचित प्रतीत होता है कि उक्त शंका पुण्य से ही होती है, क्योंकि उक्त शंका हो जाने पर पुण्यवान पुरुष बेदवर्णित अप्रमाणिक अनुष्ठानों के जाल में फँसने से बच जाता है । यदि यह कहा जाय कि - ' वेद की अवश्य कर्ता की शंका पापमूलक है यह बात लोकसिद्ध है तो यह भी उचित नहीं है क्योंकि वेद के अकर्तृत्व के सम्बन्ध में अनेक लोगों का विपरीत मत होने से उस शंकर के पापमूलक होने में लोक को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि लोक उसी बात में प्रमाण हो सकता है, जिस में सभी का ऐकमत्य हो । उक्त बात में सब का ऐकमत्य नहीं है, अतः उसे लोकसिद्ध नहीं कहा जा सकता । पूर्वपक्ष की ओर से यदि यह कहा जाय कि ' वेद के अवश्यकर्ता की शंकर पापमूलक है, इस बात में यद्यपि सत्र का ऐकमत्य नहीं है किन्तु यह बात बहुसंख्यक लोगों को अभिमत हैं, अतः बहुसंख्यकों की अभिमति ही इस बात में प्रमाण है तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि संसार के सभी पुरुषों का दर्शन अपने को शक्य न होने से यह निश्चय करना कठिन है कि जिन्हें उक्त बात अभिमत है उन की संख्या अधिक हैं और जिन्हें उस बात अभिमत नहीं है। उन की संख्या अल्प है || ३८ ॥
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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