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[शासवार्ता स्त: १७३७
योग्यतायाः शक्तिविशेषस्य हा त्राप्यमानत्वात् । यात्तिा वाले श्रोत्रस्य संयोग एव, मनो-नयनव नामिन्द्रियाणां व्यञ्जनावग्रहमतिपादनात्, “पुठं सुणेइ सई " : आव. नि. 'लो. ५ ] इत्यागमात्, यान्तरस्याऽग्रहणं च श्रोत्रेणाऽयोन्यत्वादिति किमनुषपन्नम् । तदेवं द्रव्यापेक्षया सर्व यचोऽपौरुषेयम् , पर्यायापेक्षया तु पौरुषेयमेवेति व्यवस्थितम् ॥ ३६ ।। अभ्युपगम्य परमत दोषान्तरमाह
दृश्यमानेऽपि चाऽऽशङ्काऽदृश्यकतसमुद्भवा ।
__ नातीन्द्रियार्थद्रष्टारमन्तरेण निवर्तते ॥ ३७ ।। 'दृश्यमानेऽपि च=श्रयमाणेऽपि च स्वतन्त्रवक्तृव्यापारवैकल्ये वेदशब्दे, आशका अदृश्यकतै समुद्भवा दृश्यकश्रवणे 'पिशाचर्तकोऽयं भविष्यति' इति पिशाचकर्तत्वोत्कटकोटिविपया न निवर्तते 'प्रेक्षापूर्वकारिण: । इति शेपः । कि सर्वथा न निवर्तत एव ? नेत्याह-अतीन्द्रियार्थदृष्टारमन्तरेण । यदि स्वसौ स्वीक्रियेत तदा तद्वचस्तो निवतेतापि, प्रत्यक्षादिभ्यः सर्वज्ञवचनस्य बलबत्त्वादिति भावः ॥ ३७ ॥ योग्यता अथवा शक्तिविशेष मृतद्रव्यात्मक शब्द में भी अव्याहत है ।
शब्म्' को द्रव्य मानने पर उस के साथ श्रोत्र की प्रत्यासत्ति संयोग ही होगा क्योंकि मन और नयन से भिन्न इन्द्रियों से व्यञ्जनावग्रहप्राप्त का ग्रहण होना बताया गया है, जैसे कि 'पुढें सुणेइ सई-स्पृष्टं शृणोति शब्दम्' इस आगम से स्पष्ट है कि श्रोत्र स्पृष्ट सम्बद्ध शब्द को सुनता है। श्रोत्र से शब्द द्रव्य का ग्रहण मानने पर उस से अन्य द्रव्य के ग्रहण की आपत्ति नहीं दी जा सकती, क्योकि शब्द द्रव्य को श्रोत्रयोग्य तथा अन्य द्रष्य को श्रोत्राऽयोग्य मान कर श्रोत्र में शब्द का ग्रहण और द्रव्यान्तर का अग्रहण मानने में कोई अनपपति नहीं है । निष्कर्ष; द्रव्य की अपेक्षा सभी बचन अपौरुषेय हैं और पर्याय की अपेक्षा वचनमात्र पौरुषेय होते हैं यह सिद्ध हुआ || ३६ ।।
'वेद किसी स्वतन्त्र पुरुष की रचना नहीं है। इस परमत को अल्प काल के लिये स्वीकार कर ३५ वीं कारिका में उस मत में सम्भावित अन्य दोष का उदभावन किया गया है। कारिका का अर्थ इमप्रकार है
"वेदात्मक शब्द राशि में किसी स्वतन्त्रवक्ता का ध्यापार नहीं है, परम्परा से बह कथित एवं श्रुत होता आ रहा है। इस का कोई दृश्यकर्ता नहीं सुना जाता।" इस बात को मान लेने पर भी विवेकशील पुरुष को यह शंका अनिवार्य है कि 'वेद दृश्यकई क न होने पर भी अदृश्य'कर्तृक किसी पिशाच द्वारा रचित हो सकता है, और यह शंका तब तक निवृत्त नहीं हो सकती जब तक किसी अतीन्द्रियार्थदर्शी मर्वश पुरुष का अस्तित्व न मान लिया जाय । मयंश पुरुष का अस्तित्व मानने पर उस के वचन से यह शका अवश्य निवृत्त हो सकती है क्योंकि सर्वश का वचन प्रत्यक्ष आदि से बलवान् होता है। अतः स्पष्ट है कि सर्पज्ञ पुरुष द्वारा घेद को अकर्तृक बता दिए जाने पर ही उस के अदृश्यकर्तृकत्य की शंका का निराकरण हो सकता है, अन्यथा नहीं ॥ ३७ ।।