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________________ [ शाखवार्ता० स्त० १०/३९-४० बहनामपि संमोहमावाद् मिथ्याप्रवर्तनात् । मानसंख्याविरोधाच्च कथमित्थमिदं ननु ? ॥ ३९॥ कश्चिद् निश्चयेऽप्याह बहूनामपि तथाऽभ्युपगन्तृणाम्, संमोहभावात् मूलाज्ञानदोषात , मिथ्याप्रवर्तना=बिगीतप्रवृत्युपपत्तेः पारशीकादीनामिव मातृविवाहादौ । तथा च 'शतमप्यन्धान न पश्यति । इति न्यायाद बहूनामप्यभ्युपगमोत्राप्रमाणमिति भावः । अभ्युपगम्यापि दोषमाह मानसंख्याविरोधाच-लोकस्य मानत्वे सप्तममानापत्त्या 'पडेव प्रमाणानि ' इति विभागयाघाताच्च ‘ननु' इत्याक्षेपे इदं='पापादत्रेदशी बुद्धिः' इत्युक्तम् इत्थं कथम् युक्तं कुतः ! ।।३९॥ 'नातीन्द्रियार्थद्रष्टारमन्तरेण ' इत्मा शिवपति-. अतीन्द्रियार्थद्रष्टा तु पुमान् कश्चिद्यदीष्यते । संभवद्विपयापि स्यादेवंभृतार्थकल्पना ॥ ४० ॥ अतीन्द्रियार्थद्रष्टा तु पुमान् सर्वदर्शी तु पुरुषः यदि कश्चिदिप्यते-म्वीक्रियते ऋपभोऽन्यो [ बहुलोक को प्रमाण मानने में संख्याव्याघातादि दोष ] ३९ वीं कारिका में बहु मख्यकों के अभ्युपगम की अमाणमा सिद्ध की गयी है, कारिका का अर्थ इसप्रकार है यदि किसीप्रकार यह निश्चय हो भी जाय कि वेद के अदृश्यकर्ता की शंका पापमूलक हैं -इस बात को माननघालों की संख्या अधिक हैं तो भी उन के अभ्युपगम को प्रमाण नहीं माना जा सकता, क्योंकि जसे पारसी लोगों की माता के साथ विवाह में प्रवृत्ति होती है उसीप्रकार बहसंख्यकों की भी अज्ञानवश अनेक मिथ्या प्रवृत्तियाँ होती है। अतः यह कहा जा सकता है कि बहुसंख्यकों द्वारा वेद के अइश्यकर्ता की सम्भावना को पापमुलक मानना भी अमानप्रयुक्त है । इसलिप 'अन्धे मनुष्य सैकड़ों की संख्या में मिल कर भी किसी वस्तु को नहीं देख सकते' इस सर्वसम्मत सत्य के आधार पर यह निष्कर्ष प्राप्त किया जा सकता है कि बहुसंख्यकों का अभ्युपगम भी इस बात में प्रमाण नहीं हो सकता कि वेद के अदृश्यकर्ता की शंका पापमूलक है, पुण्य मूलक नहीं है। वेद के अदृश्य कर्ता की शंका पापमूलक है.' इस बहुसंख्यक अभ्युपगम मान लेने पर इस से उक्त बात की प्रामाणिकता नहीं हो सकती, क्योंकि लोक अथषा लोकाभ्युपगम को प्रमाण मानने पर सप्तम प्रमाण की आपत्ति होने से 'प्रमाण छः ही होते हैं ' इसमकार के प्रमाण विभाग का व्याघात प्रसक्त हाने से लोक अथवा लोकाभ्युपगम को प्रमाण नहीं माना जा सकता । इस स्थिति में यह कथन कैसे युक्तिसंगत हो सकता है कि वेद के अवश्यकर्ता की शंका पापजन्य है, पुण्यजन्य नहीं है ? ॥३९॥ संतीसवीं कारिका में कहा गया था कि अतीन्द्रिय अर्थों के द्रष्टा पुरुष की माने बिना वेद के अदृश्यकर्ता की शंका निवृत्त नहीं हो सकती ! ५० वीं कारिका में उसी को विशद किया गया है । कारिका का अर्थ इसप्रकार है-हाँ, यदि यह स्वीकार कर लिया जाय कि अतीन्द्रिय माँ का द्रष्टा कोई सर्वज्ञ पुरुष है। भले वह ऋषभदेव हो या अन्य हो। तो ऐसी कल्पमा
SR No.090423
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 9 10 11
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages497
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size16 MB
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