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स्या. क. टीका-हिन्दी विवेचन ]
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अधात्र 'कीलिङ्गः शतवर्षजीवी ?' इति प्रश्न 'कररखाविशेषवान् शतवर्षजीवी' इत्युत्तरवाक्यं व्याप्तिपरम् इति कररेखाविशेषणलिङ्गेन शतवर्षजीवित्वमनुमीयत इति चेत् ? न, लिङ्गाद्यनुसंधानाभावात् अन्यथा प्रकृतेऽर्पादृशक्रमस्य सुवचत्वात् । " इन्द्रियव्यापाराभावेऽप्युपलब्धगोसादृश्यविशिष्टगवयपिण्डस्य वाक्यतदर्थस्मृतिमतः कालान्तरेऽप्यनुसंधानबलात् समयपरिच्छेदोपपत्तेनं प्रत्यभिज्ञानमेतत्" इत्ति तु 'प्रत्यभिज्ञा प्रत्यक्षविशेष:' इति वदतां दूषणम्, नास्माकमत्र परोक्षमेदवादिनाम् । हेतुभेदध्यात्र नाधिक्यसाधकः, प्रत्यक्षविशेषे चाक्षुपादौ चक्षुरादिहेतुभेदवत् प्रत्यभिज्ञाविशेषेऽतिदेशवाक्यादिहेतुमेदोपपत्तेः । नन्वेवमतिदेशवाक्यार्थानुभवानन्तरं झटित्येव सहश पिण्डदर्शन उपमितिर्न स्यात्, अनुभव- स्मरणोत्तरमेव प्रत्यभिज्ञानोपगमादिति चेत् ? न स्यादेव यदि श्रुतोपयोगानुपरमः, तदुपरमे तु स्मृतिसंपन्या स्यादेषेति द्विग् ॥ १६॥
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है । यह निश्रय भी प्रत्यभिक्षा का ही एक भेद है । यदि इन ज्ञानों को प्रत्यभिक्षा में भिन्न प्रमी मानकर उस की उपपत्ति के लिये उपमान नामक अतिरिक्त प्रमाण की कल्पना की जायेगी तो उसी के समान पक और अतिरिकप्रमाण की कल्पना की आपत्ति होगी। जैसे कोई सामुद्रिक किसी व्यक्ति से कहता है कि जिस के हाथ में अमुक प्रकार की विशेष रेखा होती हैं वह सौ वर्ष तक जीवित रहता है । फिर वह व्यक्ति जब किसी अन्य मनुष्य के हाथ में उस प्रकार की रेखा देखता है तब उसे सामुद्रिक के वाक्य का अस्मरण होकर उस मनुष्य के विषय में यह ज्ञान होता है कि यह मनुष्य सौ वर्ष तक जीवित रहनेवाला है। यह ज्ञान प्रत्यक्ष, अनुमिति, उपमिति अथवा शाब्दबोधरूप नहीं है, किन्तु प्रमा है | अतः इस के करणभूत 'हाथ के रेखाविशेष के ज्ञान को अतिरिक्त प्रमाण मानना आवश्यक है। फिर भी इसे प्रमाण न मानना, और गो में गवयसादृश्यज्ञान के अथवा मबयपद में गवयत्व प्रवृत्तिनिमित्तकवित्व ज्ञान के करणभूत ' गवय में गोसादृश्य ज्ञान को अतिरिक्त प्रमाण मानना - यह अक्षता का ही सूचक है ।
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[ शतवर्षजीवितज्ञान का अनुमिति में अन्तर्भाव अनुचित ]
यदि यह कहा जाय कि कैसे चिह्नवाला व्यक्ति शतवर्षजीवी होता है, इस प्रश्न उत्तर में यदि यह कहा जाता है कि जिस के हाथ में अमुक प्रकार की विशेष रेखा होती हैं वह शतवर्षजीवी होता है तो इस कथन का तात्पर्य इस प्रकार की व्याप्ति बताने में होता है कि जिन मनुष्यों के हाथ में अमुक प्रकार की विशेष रेखा होती है वे सभी शतवर्षजीबी होते हैं। अतः किसी मनुष्य के हाथ में विशेषरेखा देख कर जो उस के शतवर्षजीवित्व का ज्ञान होता है यह अनुमितिरूप है क्योंकि वह उक्त व्याप्तिज्ञान से प्रादुर्भूत होता है" - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त उत्तर से लिङ्ग-लिङ्गत्व-व्याप्ति आदि का ज्ञान नहीं होता और यदि उक्त उत्तर से व्याप्ति आदि का ज्ञान मान कर हाथ के रेखाविशेष से होनेवाले शतffers के ज्ञान को अनुमितिरूप माना जायगा तो यह क्रम गाय में गोसादृश्यज्ञान से होनेवाले गो में गवयसादृश्यज्ञान अथवा गवय में गवयपदवाच्यत्वज्ञान के सम्बन्ध में भी कहा जा सकता है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि 'गोसदृशी गवयः इस अतिदेशवाक्य का भी • तात्पर्य nerve सादृश्य के प्रतियोगित्व में गवयसादृश्य की व्याप्ति बताने में अथवा गोसादृश्य
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